________________
तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
वर्ष में जाओ और पीठों, उपपीठों एवं क्षेत्रों में अनेक प्रकार से इसकी सृष्टि करो।' सम्मान के साथ हम उस विद्वान की बात का विरोध करते और कहते हैं कि इस श्लोक से यह नहीं स्पष्ट होता कि भारत में तन्त्र-सिद्धान्तों का प्रचलन इस श्लोक के उपरान्त ही हुआ। तन्त्र सिद्धान्तों के रहने पर भी उस वचन का उच्चारण सम्भव था और पीठों एवं क्षेत्रों की ओर जो निर्देश है (श्लोक में) वह इस बात की पुष्टि-सी करता है कि उनमें तन्त्रसिद्धान्त प्रचलित थे। पुराणों में हमें भविष्यवाणी के रूप में वही प्राप्त होता है जो बीत चुका रहता है। यह सम्भव है कि कलाचार एवं वामाचार ऐसे कुछ रहस्यवादी प्रयोग बाह्य तत्त्वों से प्रभावित रहे हों या वे मौलिक रूप से बाहरी रहे हों। किन्तु उस श्लोक पर महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने जो निर्भरता प्रदर्शित की है, वह इसे सिद्ध करने को कदापि उपयुक्त नहीं है। रुद्रयामल (जीवानन्द द्वारा सम्पादित, १८६२) में अथर्ववेद (१७वाँ पटल, चौथा श्लोक) की प्रशस्ति आयी है कि उसमें सभी देवों, सभी प्राणियों (स्थलचर, जलचर एवं नभचर). सभी ऋषियों, कामविद्या एवं महाविद्या का निवास है; श्लोक १०-१७ में रहस्यमयी कुण्डलिनी का वर्णन है, ३१ श्लोकों में यौगिक प्रयोगों का, ६ श्लोकों में शरीर के चक्रों का उल्लेख है, ५१ से ५३ तक के श्लोको में कामरूप, जालन्धर, पूर्णगिरि, उड्डियान एवं कालिका पीठों आदि का वर्णन है। बागची ('स्टडीज़ इन तन्त्र', प० ४५-५५) तान्त्रिक सिद्धान्तों में बाह्य तत्त्वों के समावेश के विषय में कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं। रुद्रयामल (१७वाँ पटल, श्लोक ११६-१२५) में आया है कि महाविद्या वसिष्ठ ऋषि के समक्ष प्रकट हुई और उनसे चीन देश एवं बुद्ध के यहाँ जाने को कहा, बुद्ध ने सिद्धि प्राप्त करने के लिए वसिष्ठ को कौल मार्ग एवं योग के प्रयोगों में शिक्षित किया और उन्हें पूर्ण योगी होने की साधना के लिए पंच: मकारों के उपयोग का निर्देश किया । इससे प्रकट है कि जब रुद्रयामल का प्रणयन हआ था तब भारत में
को है। डा० बी० भट्टाचार्य ने भी यही सम्मति दी है ।' (देखिए 'बुद्धिस्ट इसोटेरिज्म' में उनकी भूमिका, ५० ४३) । आर्थर अवालोन ने महानिर्वाणतन्त्र (तृतीय संस्करण, १६५३, पृ० ५६०) में लिखा है कि तन्त्र भारत में चाल्डोआ या शकद्वीप से आया। माडर्न रिव्यू (१६३४, पृ० १५०-१५६) में प्रो० एन० एन० चौधरी ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भारतीय तन्त्रवाद का मूल तिब्बत के बॉन धर्म में पाया जाता है। वे इस विषय में इस तिब्बती परम्परा में विश्वास करते हैं कि असंग ने भारत में तन्त्रवाद चलाया। किन्तु यह परम्परा केवल तारानाथ के बौद्धधर्म के इतिहास पर निर्भर रहती है। लामा तारानाथ का जन्म सन् १५७३ ई० (कुछ लोगों के मत से १५७५ ई०) में हुआ था और उन्होंने अपना इतिहास सन् १६०८ में पूरा किया, अर्थात् उन्होंने असंग के लगभग १२०० वर्षों के उपरान्त लिखा। प्रो० चौधरी ने आगे एकजटासाधन (साधनमाला, संख्या १२७, आर्यनागार्जुनपाद टेषु उद्धतमिति) के अन्त में लिखित बात पर निर्भर किया है। किन्तु यह वाक्य उन आठ पाण्डलिपियों में, जिनपर यह संस्करण आधारित है, तीन पाण्डुलिपियों में नहीं पाया जाता। प्रो० चौधरी ने यह भी कहा है कि तन्त्र में गरु की स्थिति न तो वैदिक है और न पौराणिक । यहाँ वे टिपूर्ण हैं। निरुक्त (२४) में विद्यासक्त श्वेताश्वतरोपनिषद् (६।१८) के वचन से गुरु की स्थिति स्पष्ट है। गुरु की पौराणिक स्थिति के विषय में देखिए लिंगपुराण एवं देवीभागवत (१११११४६), श्वेताश्व० ६।२३ एवं अग्नि पुराण (३६२।६)।
५. यः कुलार्थी सिद्धमन्त्री भवेदाचारनिर्मलः। प्राप्नोति साधनं पुण्यं वेदानामप्यगोचरम् ॥ बौद्धदेशेऽथर्ववेदे महाचीने सदा व्रज ॥.... मत्कुलजो महर्षे त्वं महासिद्धो भविष्यसि।...ततो मुनिवरः श्रुत्वा महाविद्यासरस्वतीम् । जगाम चीनभूमौ च यत्र बुद्धः प्रतिष्ठति ॥...बुद्ध उवाच । वसिष्ठ श्रृणु वक्ष्यामि कुलमार्गमनुत्तमम् । येन विज्ञान (स?)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org