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धर्मशास्त्र का इतिहास
से निष्पन्न माना है। आप० श्री० सूत्र (१।१५।१) ने तन्त्र शब्द 'कई भागों वाली विधि' के अर्थ में प्रयुक्त किया है। शांखायन श्रौ० ( १।१६।६ ) में आया है कि वही तन्त्र है जो एक बार हो जाने पर ( किये जाने पर ) बहुत-से अन्य कर्मों का उपयोग सिद्ध करता है । महाभाष्य ने पाणिनि ( ४ । २ । ६० ) एवं वार्तिक 'सर्वसादेर्द्विगोश्च लः’ पर 'सर्वतन्त्र: ' एवं 'द्वितन्त्रः' को उदाहरणों के रूप में लिया है, जिनका तात्पर्य है वह, 'जिसने सभी तन्त्रों को पढ़ लिया है' या 'जिसने दो तन्त्रों का अध्ययन किया है'; यहाँ पर 'तन्त्र' का सम्भवतः अर्थ है सिद्धान्त । याज्ञ ० १।२२८: 'तन्त्रं वावैश्वदेविकम्' में प्रयुक्त 'तन्त्र' शब्द उसी अर्थ में है जिसमें शांखायनश्रौतसूत्र ने प्रयुक्त किया है । कौटिल्य अर्थशास्त्र के १५वें अधिकरण का नाम है 'तन्त्रयुक्ति' (देखिए जे० ओ० आर०, मद्रास, जिल्द ४, १६३०, पृ० ८२) जिसका अर्थ है किसी शास्त्र की व्याख्या के मुख्य नियम, विधियाँ या सिद्धान्त । चरक ( सिद्धि - स्थान, अध्याय १२।४०-४५ ) ने भी ' ३६ तन्त्रस्य युक्तयः', एवं सुश्रुत ( उत्तरतन्त्र, अध्याय ६५) ने ३२ तन्त्रयुक्तियों का उल्लेख किया है। बृहस्पति, कात्यायन एवं भागवत में 'तन्त्र' का प्रयोग 'सिद्धान्त' या 'शास्त्र' के अर्थ में हुआ है । शबर ने जैमिनि (११।१।१) के भाष्य में कहा है कि जब कोई कार्य या पदार्थ एक बार हो जाता है तो वह बहुत-सी अन्य बातों या विषयों में उपयोगी होता है और इसे तन्त्र कहा जाता है । शंकराचार्य ने वेदान्त सूत्र के भाष्य में कई स्थानों पर 'सांख्य सिद्धान्त को सांख्य तन्त्र तथा पूर्वमीमांसा को प्रथम तन्त्र' कहा है। (वे० सू० २।२।१, २।१।१ एवं २।४।६; वे० सू० ३।३ । ५३ में पूर्वमीमांसा - सूत्र को प्रथम तन्त्र कहा है ) । कालिकापुराण ( ८७।१३० ) में उशना एवं बृहस्पति के राजनीति विषयक ग्रन्थों को तन्त्र कहा गया है और विष्णुधर्मोत्तर पुराण को तन्त्र की संज्ञा दी गयी है ( ६२।२ ) । इन सभी उपर्युक्त उदाहरणों में कहीं भी 'तन्त्र' शब्द का मध्यकालीन विलक्षण अर्थ नहीं पाया जाता ।
तन्त्र साहित्य के अर्थ में प्रयुक्त 'तन्त्र' शब्द का प्रयोग कब प्रचलित हुआ, यह कहना कठिन है और यह भी निश्चित करना सम्भव नहीं है कि किन लोगों ने सर्वप्रथम तन्त्र- सिद्धान्तों एवं प्रयोगों ( व्यवहारों ) को आरम्भ किया और न यही जानना सरल है कि यह सब सर्वप्रथम कहाँ हुआ । महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री इस बात को मानने को सन्नद्ध थे कि तन्त्र के सिद्धान्त एवं व्यवहार भारत में बाहर से आये और वे कुब्जिका मत एक श्लोक पर विशेष निर्भर रहे हैं, जिसका अर्थ यह है -- 'सभी स्थानों पर अधिकार करने के लिए भारत
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२. उदित आदित्य पौर्णमास्यास्तन्त्रं प्रक्रमयति प्रागुदयादमावास्यायाः । आप० श्र० १११५१, जिस पर, टीकाकार की टीका है 'अंगसमुदायस्तन्त्रम् । तत्प्रक्रमयति यजमानोऽध्वर्युणा ।' 'तन्त्रलक्षणं तत् ।' शांखायनश्रौतसूत्र ( १|१६|६), जिस प्रकार कि यह टीका है -- 'यत्सकृत्कृतं बहूनामुपकरोति तत्तन्त्रमित्युच्यते ।'
३. आम्नोय स्मृतितन्त्रे च लोकाचारे च सूरिभिः । शरीराधं स्मृता जाया पुण्यापुण्यफले समा ॥ बृहस्पति, अपरार्क ( पृ० ७४०), दायभाग ११।१।२ ( पृ० १४६), कुल्लूक ( मन ६ । १८७) द्वारा उद्धृत । 'आत्मतन्त्रे तु यनोक्तं तत्कुर्यात्पारतन्त्रिकम् ।' कात्यायन से स्मृतिचन्द्रिका ( पृ० ५) द्वारा उद्धृत । तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणो यतः । भागवत १।३।८। यहाँ पर 'पञ्चरात्र' को सात्वततन्त्र कहा गया है । 'यत्सकृत्कृतं बहूनामुपकरोति तत्तन्त्रमित्युच्यते यथा बहूनां ब्राह्मणानां मध्ये कृतः प्रदीपः । शबर का भाष्य (जैमिनि ११।४।१ ) ।
४. इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली (जिल्द ६, पृ० ३५८ ) -- ' गच्छ त्वं भारते वर्षे अधिकाराय सर्वतः । पीठोपपीठक्षेत्रेषु कुरु सृष्टिमनेकधा ॥' देखिए हरप्रसाद शास्त्री का कॅटलॉग, ताड़पत्र पाण्डुलिपि, नेपाल दरबार लाइब्रेरी (कलकत्ता, १६०५), भूमिका पृ० ८६ यह पाण्डुलिपि पश्चात्कालीन गुप्तलिपि में है, अर्थात् ७वीं शती
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