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________________ अध्याय २६ तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र जब हम इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में दुर्गा पूजा के विषय में पढ़ रहे थे तो ऐसा कहा गया था कि यह पूजा, जिसे शाक्त पूजा ( दुर्गा को शक्ति के रूप में भी पूजा जाता है) भी कहा जाता है, सारे भारतवर्ष महत्त्वपूर्ण रही है, और यह भी कहा गया था कि आगे के किसी खण्ड में हम शक्तिवाद की चर्चा करेंगे । अब हम शाक्तों एवं तन्त्रों की सविस्तार चर्चा करेंगे । क्योंकि इन्होंने पुराणों पर कुछ प्रभाव डाला और प्रत्यक्ष रूप से तथा पुराणों के द्वारा मध्यकाल की भारतीय धार्मिक रीतियों एवं व्यवहारों (आचारों) को प्रभावित किया है। तन्त्र विषय पर एक विशद साहित्य है, कुछ ग्रन्थ प्रकाशित एवं कुछ अप्रकाशित हैं। तीनों प्रकार के तन्त्र हैं, बौद्ध, हिन्दू एवं जैन । कुछ तन्त्रों का दार्शनिक या आध्यात्मिक पहलू भी है, जिस पर आर्थर अवालोन, बी० भट्टाचार्य एवं कुछ अन्य लोगों के अध्ययनों के अतिरिक्त कोई विशेष अध्ययन नहीं उपस्थित हो सका है । सामान्यतः लोग तन्त्रों से तात्पर्य लगाते हैं शक्ति (काली देवी) की पूजा, मुद्राएँ, मन्त्र, मण्डल, पञ्च मकार, दक्षिण मार्ग, वाम मार्ग एवं ऐन्द्रजालिक क्रियाएँ, जिनके द्वारा अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त की जाती हैं । यहाँ हम बहुत ही संक्षेप में शक्तिवाद एवं तन्त्र के उद्गम के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे और देखेंगे कि किस प्रकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पुराणों के द्वारा तन्त्र हिन्दू धार्मिक रीतियों में प्रविष्ट होते रहे हैं । अमरकोश के अनुसार तन्त्र का अर्थ है 'प्रमुख विषय या भाग', 'सिद्धान्त' ( अर्थात् मत, तत्त्व, वाद या शास्त्र), करघा ( कपड़ा बुनने का एक यन्त्र ) या सामग्री या उपकरण । किन्तु इससे यह नहीं पता चलता कि तन्त्र कार्यो का कोई विलक्षण वर्ग है । अतः ऐसा अनुमान निकालना दोषपूर्ण नहीं कहा जा सकता कि अमरकोश के काल में तो तन्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों का प्रणयन नहीं हुआ था, या हुआ भी रहा होगा तो वे ग्रन्थ अभी जन सामान्य की बुद्धि में बैठ नहीं सके थे । ऋ० (१०।७११६) में 'तन्त्र' शब्द आया है, किन्तु वह करघा के अर्थ में ही प्रयुक्त है, ऐसा लगता है ' ' ये अबोध व्यक्ति नीचे ( इस विश्व में ) नहीं चलते ( घूमते) और न उच्च लोक में ही ( घूमते), न तो ये विद्वान् ब्राह्मण हैं और न सोम निकालने वाले पुरोहित हैं; ये (दुष्ट प्रकार की बोली ) बोलते हैं और उस दुष्ट ( या पापमय ) बोली के साथ हलों एवं तन्त्रों को चलाते हैं ।' अथर्ववेद ( १० | ७|४२ : 'तन्त्रमेके युवती विरूपे अभ्याक्रामं वयत: षण्मयूखम् ) एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण ( २२५ ५। ३) ने इसी अर्थ में 'तन्त्र' शब्द का प्रयोग किया है । पाणिनि ( ५।२।७० ) ने 'तन्त्रक' ( वह वस्त्र जो अभी -अभी करघे से उतारा गया हो ) शब्द 'तन्त्र' १. इमे ये 5 र्वाड न पाश्चरन्ति न ब्राह्मणासो न सुतेकरासः । त एते वाचमधिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः । ऋ० १०।७११६ | सायण ने व्याख्या की है-- सिरी सोरिणो भूत्वा तन्त्रं कृषिलक्षणं तन्वते विस्तारयन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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