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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
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पर आवृत रखा होगा, जो (स्मृति) स्वयं किसी वेद-वचन पर अवश्य आघृत रही होगी, अर्थात् व्यवहार स्मृतियों की अपेक्षा वेद से एक सीढ़ी पीछे है। इतना ही नहीं, यह विदित है कि स्मृतियाँ ऐसे लोगों द्वारा प्रणीत हुई हैं जो वेदज्ञ थे । किन्तु व्यवहारों एवं आचारों के मूल संदिग्ध एवं अनिश्चित हैं ।
यद्यपि यह एक सैद्धान्तिक नियम है, जो वसिष्ठ ( ११५ ), मिताक्षरा (याज्ञ० १७ एवं २।११७ ), कुल्लूक ( मन २।१० ) जैसे धर्मशास्त्र ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारों द्वारा मान्य रहा है, तथापि अति प्राचीन काल से ही स्मृतियों के विरोध में आचार (व्यवहार) प्रचलित रहे हैं (यथा -- मामा की पुत्री से विवाह कर्म मनु एवं अन्य प्रामाणिक स्मृतियों द्वारा तिरस्कृत था ) । व्यवहारमयूख ( पृ० ६८ ) का ऐसा कथन है कि पुराणों में कुछ ऐसे आचार आते हैं जो स्मृति विरोधी हैं । कचहरियों ने ऐसा निर्णय किया है कि परम्परा से चला आया हुआ आचार सर्वोत्तम कानून (व्यवहार) है ( आचारः परमो धर्मः, मनु १।१०८, जैसा कि सर विलियम जोंस ने अनूदित किया है) । मन ( २1१०) का कथन है कि वेद एवं स्मृति को सभी बातों के लिए तर्क पर नहीं कसना चाहिए, क्योंकि धर्म दोनों से निकल कर प्रकाशित हुआ । मनु ने पुन: कहा है कि उन विषयों में जहाँ विशिष्ट व्यवस्थाएँ नहीं हैं, वे ब्राह्मण, जिन्होंने वेदांगों, मीमांसा, पुराणों आदि सहायक शास्त्रों के साथ वेद का अध्ययन किया है, जो कुछ कहते हैं वही धर्म है ।
प्रिवी कौंसिल द्वारा ऐसी घोषणा की गयी है कि 'हिन्दू कानून के अन्तर्गत व्यवहार या आचार द्वारा स्थापित साक्ष्य लिखित कानून से बढ़कर है । अति प्राचीन काल से लोक - रीतियाँ ( प्रयोग या प्रचलित व्यवहार ) एवं आचार प्रामाणिक माने गये हैं । यथा गौतम (११।२० ) में आया है -- 'देशों, जातियों एवं कुलों के व्यवहार प्रमाण हैं, जब कि वे वैदिक वचनों के विरोध में नहीं पड़ते हैं ।' मनु ( ११११८ ) का कथन है कि उन्होंने अपने शास्त्र में देशों, जातियों, कुलों, पाषण्डों एवं संघों की परम्परागत रीतियों एवं आचारों का समावेश किया है । कुछ विषयों में आधुनिक विधायिका संस्था लोकरीतियों एवं परम्परानुगत व्यवहारों को सर्वोच्च प्रामाणिकता प्रदान करती है ।
कुछ कवियों की समीक्षा में ऊपर हमने देख लिया है कि किस प्रकार बहुत से कृत्य, जो कलिवर्ज्य - सम्बन्धी ग्रन्थों में वर्जित हैं, वैदिक कालों में प्रयुक्त होते थे या वैदिक वचनों द्वारा व्यवस्थित थे ।
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कुमारिल ने स्पष्ट किया है कि अहिच्छत्र एवं मथुरा की ब्राह्मण नारियाँ भी, उनके समय में, सुरापान करती हैं ; उत्तर भारत के ब्राह्मण अयाल वाले घोड़ों (नील गाय ), खच्चरों, ऊँटों, दो पाँतों में दाँत वाले पशुओं के विक्रय एवं दान में संलग्न रहते हैं और अपनी पत्नियों, बच्चों एवं मित्रों के साथ एक ही पात्र में खाते हैं; दक्षिणी ब्राह्मण मामा की पुत्री से विवाह करते हैं और वैदल ( सींक या खमाची से बनी मचिया या मोढ़ा ) पर बैठकर भोजन करते हैं; दोनों (उत्तरी एवं दक्षिणी ब्राह्मण ) मित्रों या सम्बन्धियों द्वारा खा लेने पर ( पात्रों में रखा ) या उनसे (खाते समय ) छुआ हुआ पका भोजन खा लेते हैं; वे तमोली (पान वाले) की दूकान पर पान के पत्ते,
७६. तन्त्रवार्तिक के इस कथन के लिए देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, पृ० ८४८ ( पाद-टिप्पणी १६४५ ) ; मामा की पुत्री के विवाह के विषय में विभिन्न मतों के लिए देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पृ० ४५८-४६३ ; एक ही पात्र में पत्नी एवं बच्चों के साथ भोजन करने के विषय में देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पृ० ७६५ । घोड़ों एवं ऐसे पशुओं के दान के विषय में, जिनके दाँत दो पंक्तियों में होते हैं, देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पू० १८१ एवं जैमिनि ( ३।४।२८-३१) ।
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