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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास के अनुसार जब ऋक्-पद्य या यजुस्-विधि सम्पादित होते हुए कृत्य की ओर संकेत करती है तो यज्ञ को पूर्ण रूप प्राप्त होता है। जैमिनि (१।२।४ एवं १।३।३०) का कथन है कि मन्त्र अर्थयुक्त हैं और वैदिक शब्द तथा संस्कृत के प्रचलित शब्द वही हैं और उनके द्वारा निर्देशित शब्द भी एक-से हैं (उन उदाहरणों को छोड़कर जिनमें वैदिक अक्षरों पर स्वर-भेद या दबाव डालने से अन्तर पड़ गया है ) । शबर के भाष्य का प्रथम वाक्य भी यही कहता है। जैमिनि ने क्रियाओं एवं संज्ञाओं के संकेतों के विषय में निरुक्त की बात मान ली है । शबर ने बहुधा निरुक्त के शब्दों को उद्धत किया है या स्पष्ट रूप से उनकी ओर संकेत किया है । यज्ञों में देवताओं के स्वभाव एवं कार्यों के विषय में जैमिनि ने निरुक्त की बात को मान्यता दी है। कुमारिल ने एक सामान्य टिप्पणी की है कि सभी वेदांग एवं धर्मशास्त्र स्मृति के अन्तर्गत आ जाते हैं।७४ ऐसा प्रतीत होता है कि जैमिनि ने स्मृतियों को कोई विशेष महत्ता नहीं प्रदान की है, क्योंकि ६१५ (या १०००) अधिकरणों में केवल लगभग एक दर्जन बार स्मृतियों की ओर संकेत मिलता है, यथा १।३।१-२, १।३।३-४, ११३।११-१४, ११३।२४-२६, ६।२।२१-२२, ६।२।३०, ६।८।२३-२४, ७१।१०, ६२१-२, १२।४१४३ । किन्तु शबर ने इससे अधिक बार स्मृतियों की ओर संकेत किया है, यथा--६।१।५ एवं १३, ६। ११६-६ । हमारा सम्बन्ध यहाँ पर जैमिनि एवं शबर तथा कुमारिल जैसे आरम्भिक टीकाकारों के स्मृति विषयक संकेतों से है । जैमिनि की स्थापित धारणा यह है कि वेद एवं स्मृति के विरोध में स्मृति को छोड़ देना चाहिए और यदि कोई विरोध न हो तो ऐसा समझा जाना चाहिए कि स्मृति वैदिक वचन पर आघृत है। इससे यह कहा जा सकता है कि यदि स्मृतियों की व्यवस्थाएँ वेद के विरोध में नहीं पड़तीं तो वे वेद पर आधारित हैं । स्मृतियों ने अष्टका श्राद्धों, जलाशयों के उत्खनन, गुरु की आज्ञाओं के पालन के लिए व्यवस्थाएँ दी हैं। ये बातें प्रामाणिक हैं, क्योंकि ये किसी वैदिक वचन के विरोध में नहीं पड़ती। स्वयं स्मृतियों ने ऐसा कहा है कि वे वेद पर आधारित हैं । देखिए गौतम (११।१६) और मन (२१७) में आया है-'मनु द्वारा किसी व्यक्ति के लिए जो धर्म उद्घोषित हुआ है, वह वेद में (बहुत पहले) ही कहा जा चुका है, क्योंकि वेद में सभी ज्ञान है ।' स्मृतियों एवं व्यवहारों के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठता है, यथा--यदि स्मृतियों एवं शिष्टों के आचारों एवं व्यवहारों में विरोध हो तो किसे प्रमाण माना जाय ? कुमारिल का कथन है कि यदि शिष्टों के व्यवहार वेद एवं स्मृति में आज्ञापित बात के विरोध में न पड़ें तो उन्हें प्रामाणिक मानना चाहिए, किन्तु यदि वेद, स्मृति एवं शिष्टाचार में विरोध हो तो उनकी प्रामाणिकता समाप्त हो जायेगी।७५ कुमारिल ने आगे कहा है कि स्मृति शिष्टाचार से अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक है क्योंकि वह सीधे ढंग से वेद पर आधारित है, किन्तु व्यवहारों के विषय में ऐसा अनुमान लगाना पड़ेगा कि शिष्टों ने अपने आचार को किसी स्मृति ७४. स्मृतित्वं त्वङ्गानां धर्मसूत्राणां चाविशिष्टम् । तन्त्रवार्तिक (पृ० २८५, १।३।२७ पर)। ७५. शिष्टं यावच्छ तिस्मृत्योस्तेन यन्न विरुध्यते । तच्छिष्टाचरणं धर्मे प्रमाणत्वेन गम्यते ॥ यदि शिष्टस्य कोपः स्याद्विरुध्येत प्रमाणता। तदकोपात्तु नाचारप्रमाणत्वं विरुध्यते ॥ तन्त्रवातिक (११३८ पर, प० २१६); पुनः पृ० २२० पर ऐसा आया है : 'उभयोः श्रुतिमूलत्वं न स्मृत्याचरयोः समम् । सप्रत्ययप्रणीता हि स्मृतिः सोपनिबन्धना॥ तथा श्रुत्यनुमानं हि निर्विघ्नमुपजायते । आचारात्तु स्मृति ज्ञात्वा श्रुतिविज्ञायते ततः। तेन द्रव्यन्तरितं तस्य प्रामाण्यं विप्रकृष्यते ॥''प्रत्यय' का अर्थ है 'ज्ञानं विश्वासो वा' (यथा, मनु आदि ऋषि हैं)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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