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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त स्मृतियों की प्रामाणिकता के विषय में चर्चा करते हुए जैमिनि, विशेषत: कुमारिल के वेदांग सम्बन्धी कथन पर ध्यान देना उपयोगी होगा । शिक्षा (स्वर या ध्वनिविद्या) के विषय में कुमारिल का कथन है कि उस ग्रन्थ में स्वरोच्चारण में प्रयुक्त अंगों के तथा वैदिक उच्चारणों के नियमों के विषय में जो वृत्तान्त है वह मन्त्रों के सम्यक् पाठ के लिए उपयोगी है। कल्पसूत्रों के विषय में जैमिनि ने एक पृथक् अधिकरण (१।३।११-१४) रख दिया है। २ शबर ने माशक, हास्तिक एवं कौण्डिन्यक कल्पसूत्रों के नाम लिये हैं और तन्त्रवार्तिक ने कल्प (श्रौत यज्ञों की विधि-क्रिया) एवं कल्पसूत्रों में अन्तर प्रकट किया है और नाम लेकर आठ की संख्या बतायी है । कुगारिल ने पू० मी० सू० के इन (१।३।११-१४) सूत्रों की व्याख्या कई प्रकार से की है, प्रथमतः कल्पसूत्रों की प्रामाणिकता की ओर संकेत करके (जैसा कि शबर ने किया है), द्वितीयत: सभी वेदांगों के संदर्भ में, तथा तृतीयत: बुद्ध तथा अन्य लोगों की स्मृतियों की ओर संकेत करके । बौद्ध ग्रन्थों ने अपने को स्मृति कहा है, जैसा कि मनुस्मृति (१२।६५) से प्रकट है 3 : 'वे स्मृतियां जो वेद के बाहर हैं, तथा जो अन्य म्रामक सिद्धान्त हैं, वे सभी निष्फल हैं, क्योंकि वे तम से आवृत (तमोमूल) हैं, अर्थात् अज्ञान से परिपूर्ण हैं।' अब हम यहाँ कुमारिल के मतानुसार वेदांगों के विषय में कुछ बातें कहेंगे। शबर एवं कमारिल के अनसार व्याकरण का निरूपण जैमिनि के ११३।२४-२६ सूत्रों में हुआ है। तन्त्रवार्तिक में कुमारिल ने स्वयं पाणिनि, कात्यायन (वार्तिक के लेखक) एवं पतञ्जलि (महाभाष्य के लेखक) के विरुद्ध बहुत-सी बातें कही हैं, जिनमें कुछ अति मनोरंजक हैं, किन्तु हम यहां पर स्थानाभाव के कारण उनका उल्लेख नहीं कर सकेंगे। कुमारिल का कथन है कि व्याकरण का सम्यक् विषय है यह निश्चित करना कि कौन-से शब्द शुद्ध हैं और कौन से अशुद्ध । यह मनोरंजक ढंग से द्रष्टव्य है कि व्याकरण के विरोध में पूर्वमीमांसासूत्र के दो सूत्र अति कटु हैं (८1१।१८ एवं ६।३।१८) । ___यास्क का निरुक्त, जो वेद के ६ अंगों में एक है, एक विशाल ग्रन्थ है और उसमें शब्दों की व्युत्पत्ति, भाषा-उत्पत्ति-शास्त्र तथा वेदों के सैकड़ों मन्त्रों की व्याख्याएँ पायी जाती हैं। जैमिनि को निरुक्त के कतिपय निष्कर्ष मान्य हैं । निरुक्त का कथन है कि बिना इसकी सहायता के वेद का अर्थ नहीं जाना जा सकता । इसका अपना एक विशिष्ट उद्देश्य है, यह व्याकरण का पूरक है। निरुक्त ने विस्तार के साथ कौत्स के इस मत का खण्डन किया है कि वैदिक मन्त्रों का कोई अर्थ (या उद्देश्य) नहीं है और बल देकर कहा है कि वेद के मन्त्रों का अर्थ या उद्देश्य है, क्योंकि उनके शब्द वही हैं जो बातचीत में प्रयुक्त होते हैं और ब्राह्मण-वचन ७२. के पुनः कल्पाः कानि सूत्राणि उच्यन्ते। सिद्धरूपः प्रयोगो यः कर्मणामनुगभ्यते । ते कल्पा लक्षणार्थानि सूत्राणोति प्रचक्षते ॥ कल्पनाद्धि प्रयोगाणां कल्पोऽनुष्ठानसाधनम् । सूत्रं तु सूचनात्तेषां स्वयं कल्प्यप्रयोगकम् ॥ कल्पाः पठितसिद्धा हि प्रयोगाणां प्रतिऋतु । तन्त्रवातिक (११३।११ पर, प्रयोगशास्त्रमिति चेत्), पृ० २२६ । प्रमुख अन्तर यह है कि प्रत्येक वैदिक यज्ञ के लिए कल्प केवल विधि की व्यवस्था बताते या रखते हैं जो ज्यों-की-त्यों मौखिक रूप से चली जाती है, किन्तु कल्पसूत्रों में, यथा आश्वलायन, बैजवापि, ब्राह्मायण, लाट्यायन एवं कात्यायन में संज्ञाएँ, परिभाषाएँ, सामान्य नियम, अपवाद, व्याख्याएँ आदि पायी जाती हैं। ७३. या वेबबाहपाः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः। सर्वास्ता निष्फला ज्ञेयास्तमोमूला हि ताः स्मृताः।। मनुस्मृति (१२१६५)। २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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