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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ८-३३) । वेद के विभिन्न पाठान्तरों एवं उनसे सम्बद्ध ब्राह्मणों में एक ही कृत्य वर्णित है और वह कुछ और विस्तारों के साथ संवर्धित है जो कुछ पाठान्तरों में पाये जाते हैं और कुछ में नहीं। जैमिनि एवं शबर की स्थापना है कि वेद एवं ब्राह्मणों की सभी शाखाएँ एक ही दल से सम्बन्धित हैं तथा अग्निहोत्र एवं ज्योतिष्टोम ऐसे कुछ कृत्य सभी वैदिक पाठान्तरों में एक ही समान हैं, यद्यपि यत्र-तत्र विस्तार में कुछ अन्तर अवश्य है और यही उचित निष्कर्ष है । क्योंकि सभी पाठान्तरों में वही नाम (ज्योतिष्टोम आदि) पाया जाता है, अत: कृत्य का फल एक ही है, यज्ञ की सामग्रियाँ एवं देवता समान हैं और विधि वाक्य भी एक से ही हैं। यही बात अति प्राचीन काल से स्मतियों में पायी जाती रही। विश्वरूप, मेधातिथि, मिताक्षरा. अपरार्क तथा अन्य टीकाकारों ने इसे स्मृतियों के विषय में भी कहा है और व्यवस्था दी है कि जहां स्मतियों में विरोव हो वहाँ विकल्प का आश्रय लेना चाहिए किन्तु अन्य बातों में अन्य विस्तार बढ़ा दिये जाने चाहिए। किन्तु विकल्प में आठ दोष पाये जाते हैं अत: किसी विषय पर सभी स्मृतियों के वचन इस प्रकार व्याख्यायित किये जाते हैं कि कोई विरोध खड़ा हीन हो या माँति-भौंति के उपयों से किसी विकल्प का सहारा लेने की स्थिति ही न उत्पन्न होने पाती थी, यथा 'विषय-व्यवस्था', 'दूसरे कल्प या युग की ओर संकेत कर देना' आदि । उदाहरणार्थ, विकल्प सम्बन्धी प्रसिद्ध उदाहरण (अतिरात्र में षोडशी पात्र को ग्रहण करना या न करना) के विषय में मिताक्षरों में आया है कि यह मान लेना उचित है कि यदि यह करना सम्भव है तो उसे ग्रहण करना चाहिए, या यह मान लेना चाहिए कि षोडशी पात्र (प्याले) को अतिरात्र में ग्रहण करने से स्वर्ग प्राप्ति में शीघ्रता होती है। सभी स्मतियों को एक शास्त्र मान लेने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से सरल कृत्य अति विस्तारों के कारण कर्ता के लिए जटिल, फष्टकारक एवं बोझिल हो गये । किन्तु कभी-कभी इस सिद्धान्त का प्रयोग आवश्यक भी है । उदाहरणार्थ, याज्ञ० (१।१३५) में आया है कि स्नातक को सूर्य की ओर (ने क्षेतार्कम्) नहीं देखना चाहिए, इसका अर्थ होगा सूर्य की ओर ताकना समी कालों में निषिद्ध है, किन्तु याज्ञ० का आदेश मन्० (४१३७) के आदेश के साथ पढ़ा जाना चाहिए, जो व्यक्ति को सर्योदय या सूर्यास्त के समय या ग्रहण के समय या जल की छाया में या जब मध्याह्न हो सूर्य का दर्शन नहीं करना चाहिए । अत: नियम मन द्वारा कहा हुआ समझा जायेगा। मपि शाखायां ब्राह्मणानेकत्वेपि तदेव फर्मेत्यभिप्रायः। तद्यथोद्गातॄणां पंचविंश-षड्विंश-ब्राह्मणयोर्कोतिष्टोमद्वादशाहो ॥' मिलाइए सर्ववेदान्तप्रत्ययं चोदनाद्य विशेषात् । वे० सू० (३३३३१)। ७०. देखिए विश्वरूप (याज्ञ० ११४-५) : 'न तावदाम्नायो धर्मशास्त्रभेदप्रतिपादकः, न च तत्प्रभवो न्यायः । अपितु श्रौतानां कृत्स्नोपसंहारात् तत्पूर्वकत्वाच्चतथैवात्रापि प्राप्नोति ।' ; देखिए मेधातिथि (मनु० २।२६); एव. मन्येष्वपि विकल्प आश्रयणीयः, अविरोधिषु समुच्चयः । शाखान्तराधिकरणन्यायेन सर्वस्मृतिप्रत्ययत्वात्कर्मणः ।' मिताक्षरा (याज्ञ० ३।३२५); देखिए अपरार्क (पृ० १०५३), स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० ५), मदनपारिजात (पृ. ११,६१), शुद्धितत्त्व (पृ० ३७८-३८०), जलाशयोत्सर्गतत्त्व (पृ० ५२३) । मिताक्षरा (याज्ञ० ११४-५) ने व्यवस्था दी है :-'एतेषां (धर्मशास्त्राणां) प्रत्येक प्रामाण्यपि साकांक्षाणामाकांक्षापरिपूरणमन्यतः क्रियते विरोधे विकल्पः'। ७१. न च षोडशिग्रहणाग्रहणवद्विषमयोदपि विकल्पोपपत्तिरिति वाच्यं, यतस्तत्रापि सति सम्भवे ग्रहणमेवेति युक्तं कल्पयितुम् । यद्वा षोडशिग्रहणानुगृहीतेनातिरात्रेण क्षिप्रं स्वर्गादिसिद्धिरतिशायितस्य धा स्वर्गस्यति कल्पनीयम् । मिता० (याज्ञ० ३।२४३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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