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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त किया जायगा कि स्वयं महान् मीमांसकों ने स्मृतियों के सरल वचनों की व्याख्या में विरोधी निष्कर्ष स्थापित कर दिये हैं। हमारे धार्मिक एवं सामाजिक विचारों के लम्बे इतिहास में परिवर्तन एक परम सत्य रहा है और वे लोग, जो ऐतिहासिक तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं, यही कहना चाहते हैं कि स्मतियाँ मानव लेखकों द्वारा लगभग १५०० से २००० वर्षों की अवधि में लिखी गयीं और उन पर तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक परिवेश का प्रभाव अवश्य पड़ा, उनके बहुत-से सिद्धान्त इस प्रकार नियोजित नहीं हो सकते कि उनसे कोई एक अविरुद्ध या स्थिर आचार-संहिता बन सके, वे सिद्धान्त सभी हिन्दुओं द्वारा सदा के लिए सामान्य नहीं हो सकते , बीसवीं शती में हमारी जनता वैसे परिवर्तनों को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वतन्त्र है, जो आज के परिवर्तित वातावरण में या तो आवश्यक हैं या समाहित हो चुके हैं और यह विधि मनु, याज्ञवल्क्य तथा मिताक्षरा एवं कल्पतरु ऐसे मध्य कालीन धर्मशास्त्रकारों द्वारा आज्ञापित भी रही है । किन्तु यह बात स्पष्ट कर देनी है कि केवल परिवर्तन के नाम पर ही आचारों एवं सिद्धान्तों में परिवर्तन नहीं कर देना चाहिए, प्रत्युत परिवर्तन के पीछे सामान्य लोगों के भाव एवं आवश्यकताओं का होना नितान्त आवश्यक है और साथ ही साथ उन स्तम्भों को अक्षुण्ण रखना चाहिए जिन पर सहस्रों वर्ष से समाज आधृत रहा है। यह भी जान लेना आवश्यक है कि मीमांसा के नियमों का सम्बन्ध यज्ञ सम्बन्धी कृत्यों एवं उनसे सम्बन्धित अन्य विषयों पर वैदिक वचनों की व्याख्या से है; यज्ञ सम्बन्धी एवं धार्मिक कृत्यों के व्यवहारों से उनका बहुत कम सम्बन्ध रहा है । ८ मीमांसासूत्र ने ऐसा कहीं नहीं कहा है कि स्मृतियों की व्याख्या के लिए एक ही प्रकार के नियमों का प्रयोग होना चाहिए । प्रत्युत, दूसरी ओर स्वयं पू० मी० सू० (१।३। ३-४ एवं ७) स्मृतियों एवं आचार-व्यवहारों के विषय में गुणदोष विवेचक हैं । वेद एवं स्मृतियों में मौलिक या तात्विक अन्तर पाया जाता है । वेद स्वयम्भू, नित्य एवं परम प्रमाण है, किन्तु स्मृतियाँ पौरुषेय (मानवकृत) एवं उपलक्षित अयवा उद्भूत प्रमाण वाली हैं। (वे उन वैदिक वचनों पर आधृत हैं, जिनका अधिकांश आज उपलब्ध नहीं है), उनकी संख्या बहुत बड़ी है, वे आपस में इतनी विरोधी हैं कि मिताक्षरा के समान प्रसिद्ध ग्रन्यों एवं लेखकों ने विभिन्न मतों के समन्वय के प्रयास को छोड़ दिया है और यहाँ तक कह दिया है कि कुछ स्मृतियां पूर्व कल्प या युग की हैं (ऐसे समाज के लिए लिखित है जो सहस्रों, लाखों वर्ष पुराना है । (पू० मी० सू० का एक प्रसिद्ध कथन है : 'सर्वशाखाप्रत्ययन्याय'६९ या 'शाखान्तराधिकरणन्याय' (२।४। ६८. देखिए निर्णसिन्ध (पृ० १२६) एवं हेमाद्रि (काल, पृ० १४४), जहां धर्मशास्त्र ने व्रतों एवं उत्सवों के विषय में मीमांसा के नियमों के प्रयोग को अमान्य ठहराया है। और देखिए स्मृतिचन्द्रिका (१।२४) एवं पराशरमाधवीय (१२२, पृ० ८३) जहाँ हारीत की बात को ओर संकेत है जो स्त्रियों के उपनयन की बात उठाते हैं, वहीं कुछ असुविधाजनक स्मृति-वचनों के सिलसिले में प्राचीन कल्पों एवं युगों को ओर भी संकेत किया गया है । पराशरमाधवीय (१, भाग २, पृ० ६७) ने मनु० (३।१३) की ओर निर्देश किया है जहाँ एक ब्राह्मण को शूद्रा स्त्री से विवाह करने की छूट दी गयी है, किन्तु मनु० (३३१४) ने पुनः इसका निषेध किया है। और देखिए 'युगादि तिथियों के विषय में मतमतान्तर, कृत्यरत्नाकर (पृ० ५४१-४२) । ६६. एकंवा संयोगरूपचोवनात्याविशेषात् । पू० मी० सू० (२४६); शबर का कथन है 'सर्वशाखाप्रत्ययं सर्वब्राह्मणाप्रत्ययं चकं कर्म' (जैमिनि २४६) पृ० ६३५-६३६); तन्त्रवार्तिक में आया है: 'एकस्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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