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धर्मशास्त्र का इतिहास यहाँ तक स्वयं मिताक्षरा ने इन दोनों स्मृतियों की बात मान ली है और स्पष्ट रूप से कहा है कि यद्यपि शास्त्रों में सम्पत्ति का विभाजन असमान था, किन्तु उस नियम का अनुसरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि अब लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं । यह द्रष्टव्य है कि याज्ञ० एवं अन्य लोगों द्वारा प्रयुक्त शब्द है 'लोकविद्विष्ट' या 'लोकविकृष्ट' (लोगों द्वारा गर्हित या निन्दित) न कि 'शिष्ट-विद्विष्ट' , धारणा यह है कि चाहे कट्टर विद्वान् लोग (पण्डित) इस बात पर बल दें कि लोगों को वेद एवं स्मृतियों द्वारा घोषित धर्म का अनुसरण करना चाहिए, कन्तु जन-साधारण को चाहिए कि वे उन आचारों का परित्याग कर दें जिन्हें वे गर्हित एवं कुत्सित समझते हैं । यह धारणा उन ऐतिहासिक तथ्यों की ओर संकेत करती है कि आचरणों एवं व्यवहारों का कालान्तर में परिवर्तन होता है और जन-सावारण वेदविहित बातों को भी छोड़ देता है। स्मृतियों की तो बात ही निराली होती है। इस प्रश्न का उत्तर कि लोग जब मामा की पुत्री से विवाह कर लेते हैं तो अपनी माता की बहन या माता की बहन की पुत्री से विवाह क्यों नहीं करते, स्मृतिचन्द्रिका ने इस प्रकार दिया है-'हम ऐसा नहीं कहते कि शास्त्र के मत से उस लड़की का वैसा विवाह नहीं हो सकता, प्रत्युत हम यह कहते हैं कि लोग इस प्रकार के विवाह को घृणा की दृष्टि से देखते हैं और इस विषय में इसने याज्ञ० (१।१५६) का उद्धरण दिया है (भ्रमवश यह उद्धरण मनु का कह दिया गया है)।
आधुनिक काल में जब धार्मिक या सामाजिक व्यवहारों में किसी परिवर्तन का निर्देश किया जाता है तो वे पण्डित, जो अपने को सनातनी कहते हैं, ऐसा घोषित करते हैं कि निर्देशित परिवर्तन शास्त्रों के विरुद्ध है, मतमतान्तर का निपटारा मीमांसा के नियमों के अनुसार होना चाहिए, सभी स्मृतियों की बातों एवं अन्य सद्धान्तों को इस प्रकार रखना चाहिए कि समन्वय स्थापित हो सके तथा ऐतिहासिक आधार हमें उचित निर्णय नहीं देते, इसीलिए हमें उन पर आधृत नहीं होना चाहिए । इन सभी विद्वानों का विवेचन यहाँ पर संक्षेप में किया गया है। यह प्रदर्शित किया जा चुका है कि वैदिक काल से लेकर अब तक किस प्रकार धार्मिक विचारों, पूजा एवं आचरणों-व्यवहारों में महान् परिवर्तन हो चुके हैं, किस प्रकार गौतम, आपस्तम्ब, मनु० से लेकर आगे की स्मृतियों में इतने पारस्परिक मतभेद पाये गये हैं कि बहुत पहले ही, अर्थात् महाभारत के काल में ही व्यास को ऐसा कहना पड़ा कि 'तर्क अस्थिर है, वेद एक-दूसरे के विरोध में मत रखते हैं। कोई ऐसा मुनि नहीं है जिसका मत (सभी द्वारा) प्रामाणिक समझा जाय । धर्म के विषय में जो सत्य वा तत्त्व है वह गुहा में छिपा हुआ है (अर्थात् उसे भली प्रकार नहीं जाना जा सकता) और तभी वही मार्ग अनुसरण करने योग्य है जो अधिक से अधिक लोगों द्वारा अनुसरित होता है।
___मीमांसा भी बहुधा हमें निश्चित निष्कर्षों की ओर नहीं ले जाती, जैसा कि हम देख चुके हैं, शबर, कुमारिल, प्रभाकर ऐसे मीमांसक कतिपय विषयों पर परस्पर विरोधी मत रखते हैं और यह भी आगे प्रदर्शित
६७. तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः। वनपर्व (३१३।११७, यक्षप्रश्न)। किन्तु यह श्लोक चित्राओ संस्करण के वनपर्व (अध्याय २६७) में नहीं पाया जाता, यद्यपि वहाँ अन्य कतिपय प्रश्न एवं उत्तर मिलते हैं। 'महा...पन्थाः' का अर्थ यह भी हो सकता है कि अनुसरण करने योग्य मार्ग वह है जिसके अनुसार महान् व्यक्ति चलता है (या चलते हैं)। बनता या लोगों के समूह के अर्थ में 'महाजन' शब्द का प्रयोग शंकराचार्य ने बेदान्तसूत्र (४१२७) में किया है, यथा-'एवमियमप्युत्कान्तिर्महाजनगतवानुकीय॑ते'।
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