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________________ १७२ धर्मशास्त्र का इतिहास सुपारी, कत्था को एक में मोड़कर खा लेते हैं, पान खाने के अन्त में आचमन नहीं करते हैं; धोबियों द्वारा धोये गये एवं गदहों पर लाये गये कपड़ों को पहनते हैं; महापातकियों के संस्पर्श का परित्याग नहीं करते; व्यक्ति, जाति, कुल के लिए व्यवस्थित धर्म की सूक्ष्म आज्ञाओं के स्पष्ट विरोध में जाने वाले बहुत से प्रमाण मिलते हैं जो श्रुति एवं स्मृति के सर्वथा प्रतिकूल हैं और उनके पीछे दृष्ट अर्थ है तथा इस प्रकार की अशुद्ध ( मिश्रित ) रीतियों एवं व्यवहारों को सदाचार द्वारा व्यवस्थित धर्म कहना सम्भव नहीं है । पूर्वमीमांसा - सम्प्रदाय के मतानुसार वैधानिक आचारों के लिए निम्नलिखित बातें अत्यावश्यक हैं, यथा— उन्हें प्राचीन अवश्य होना चाहिए, उन्हें श्रुति या स्मृति के स्पष्ट वचनों के विरोध में नहीं होना चाहिए, उनके पीछे शिष्टों की मान्यता होनी चाहिए, उनका पालन अन्तःकरण से होना चाहिए, उनके पीछे कोई दृष्टार्थ नहीं होना चाहिए और न उन्हें अनैतिक होना चाहिए। देखिए इस विषय के विस्तृत निरूपण के लिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, पृ० ८५३ - ८५५ । आचारों एवं व्यवहारों अथवा लोक-रीतियों की मान्यता के विषय में धर्मशास्त्र के ग्रन्थों ने जो सामान्य नियम बनाये हैं वे पूर्वमीमांसा के नियमों की पद्धति पर ही हैं । देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, पृ० ८७१-८८४ | किन्तु वैदिक वचनों एवं स्मृतियों से क्रमशः विचलन होता रहा, जैसा कि हमने ऊपर देख लिया है । ७७ कुमारिल के मतानुसार महान् पुरुषों द्वारा किये गये सभी कर्म सदाचार नहीं कहे जा सकते, विशेषतः वे कर्म जो लोभवश किये गये हों या किसी क्षुद्र वृत्ति के वशीभूत होकर किये गये हों; ऐसे कर्मों को धर्म की संज्ञा नहीं दी जानी चाहिए । गौतम, आप० ध० सू० एवं भागवत पुराण का कथन है कि महान् व्यक्ति भी साहस एवं धर्मव्यतिक्रम करते पाये गये हैं । किन्तु वे महान् तपों से युक्त होने के कारण पाप के भागी नहीं हो सके (वे व्यतिक्रमों के प्रभावों से मुक्त हो गये), किन्तु पश्चात्कालीन लोग उन उदाहरणों का पालन करते हुए और उसी मार्ग पर चलते हुए पाप के भागी हो जाते हैं । कुमारिल ने इस प्रकार के बारह दोषों का उल्लेख किया है, उनकी व्याख्या की है और कहा है कि इनके मूल में क्रोध या अन्य वासनाएँ हैं, उन दोषपूर्ण कर्मों के कर्ता उन्हें धर्म की संज्ञा नहीं देते और न आधुनिक काल के लोग ऐसे कर्मों को सदाचार ही मानते । ये बारह उदाहरण इस प्रकार हैं- प्रजापति जिन्होंने स्वयं अपनी पुत्री ( उषा, जैसा कि कुमारिल ने व्याख्या की है) को कामुक दृष्टि से देखा; द्रन्इ जो अहल्या के जार ( उपपति, प्रेमी) के रूप में उल्लिखित हैं ( कुमारिल की व्याख्या के अनुसार अहल्या 'रात्रि' का द्योतक है); वसिष्ठ ने राक्षस द्वारा अपने सौ पुत्रों की हत्या के उपरान्त आत्महत्या करनी चाही; विश्वामित्र ने उस त्रिशंकु का पौरोहित्य किया, जो शाप से चाण्डाल हो गया था; नहुष, जिसने इन्द्र की स्थिति प्राप्त करने पर, इन्द्र की पत्नी शची को प्राप्त करना चाहा और अजगर बना डाला गया; पुरूरवा, जो उर्वशी से बिछुड़ जाने पर मर जाना चाहता था ( फांसी लगाकर या लटक कर ) ; कृष्ण द्वैपायन, जिन्होंने ब्रह्मचारी रहकर भी अपने सहोदर भाई विचित्रवीर्य की विधवाओं से पुत्र उत्पन्न किये; भीष्म, जिन्होंने अविवाहित रहने पर भी अश्वमेध यज्ञ किये; धतराष्ट्र, जिन्होंने जन्मान्ध होने पर भी ऐसे यज्ञ किये, ७७. दृष्टो धर्मव्यतिक्रमः साहसं च महताम् । अवादौर्बल्यात् । गौतम ( ११३ - ४ ), दृष्टो धर्मव्यतिक्रमः साहसं 'च पूर्वेषाम् । तेषां तेजोविशेषेण प्रत्यवायो न विद्यते । तदन्वीक्ष्य प्रयुञ्जानः सोदत्यवरः । आप० ष० सू० (२।६।१३१७-६); देखिए भागवत ( १०, पूर्वार्ध ३३।३०) : धर्मव्यतिक्रमरो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् । तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा । मनु० (६।७१ ) का कथन है कि प्राणायाम एवं अन्य प्रयोगों से इन्द्रियों एवं मन की अशुद्धता दूर हो जाती है ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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