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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास उत्थान एवं कल्याण के लिए विववा देवर से संभोग करके पुत्र उत्पन्न करती थी। तै० सं०, (३ ) में दो विरोत्री वचन हैं—'मन ने अपनी सम्पत्ति को अपने पुत्रों में बांट दिया' (बिना किसी अन्तर के) तथा 'अतः वे ज्येष्ठ पुत्र को पैतृक सम्पत्ति देते हैं' (त० सं० २।५।२७)। इस अन्तिम वचन में यह तर्क दिया जा सकता है कि जब दो वैदिक वचनों में विरोध है तो विकल्प का आश्रय लिया जा सकता है। किन्तु बहुत प्राचीनकाल से सम्पूर्ण सम्पत्ति या अधिकांश बडे पूत्र को देने पर प्रतिबन्ध था। आपस्तम्ब ने दोनों वैदिक वचनों को उदधत किया है और मत प्रकाशित किया है कि पुत्रों में बराबर विभाजन उचित नियम है और टिप्पणी की है कि ज्येष्ठ पुत्र को सम्पूर्ण सम्पत्ति या अधिकांश देना शास्त्रों के विरुद्ध है। उन कर्मों में जो कलि में वर्जित हैं किन्तु वेद के काल में व्यवहृत थे (तीन का उल्लेख ऊपर हो चुका है) कुछ निम्नलिखित हैं-(१) सत्रों के लिए दीक्षा लेना (सत्र ऐसे यज्ञ थे जो १२ दिनों या १२ वर्षों या और अधिक वर्षों तक चलते थे और केवल ब्राह्मणों द्वारा किये जाते थे),जैमिनि ने ६।६।१६-३२ में तथा अन्य स्थानों पर इसका उल्लेख एवं वर्णन किया है। यह द्रष्टव्य है कि शबर एवं कमारिल ने सत्रों को कलिवयं के रूप में नहीं उल्लिखित किया है। इसी से कम-से-कम ८वीं शती तक यह सामान्यत: वणित कलिवों में परिगणित नहीं था। (२) गाय या बैल की हत्या । वैदिक यग में कतिपय अवसरों पर ऐसी हत्या होती थी। ज्यों-ज्यों मांस-भक्षण बुरा समझा जाने लगा गाय की बलि को लोग अति भत्सना की दृष्टि से देखने लगे और मध्य-काल के कलिवर्ण्य-सम्बन्धी ग्रन्थों ने इसको केवल वयों की सूची में रख दिया है, वास्तव में, यह उनसे कई शतियों पहले से कलिवयं था। (३) सौत्रामणी यज्ञ में सुरा के प्यालों का आनन्द । जैमिनि, शबर एवं कुमारिल की टुप्टीका ने इसका वर्णन किया है और शबर एवं कुमारिल दोनों ने इसमें सुरापूर्ण प्यालों की आहुतियों की चर्चा की है। अत: यह कृत्य कुमारिल के काल के उपरान्त कलिवयं माना गया होगा। (४) वर (दूल्हे), अतिथि एवं पितरों के सम्मान में वैदिक मन्त्रों के साथ पशु-बलि । देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पृ० ५४२-५४६ जहाँ मधुपर्क का उल्लेख है, जिसमें (ऐत. बा. के अनुसार) बल या गाय की बलि होती थी। मन ० (५४१-४४) ने मधुपर्क, यज्ञों एवं पितरों के पिण्ड-दान या श्राद्ध के कृत्यों तथा देवों के लिए यज्ञों में पशुओं की बलि की अनुमति दी है और इस बात पर बल देकर घोषणा की है कि वेद की व्यवस्था के अनुसार पशु-बलि हिंसा नहीं है, प्रत्युत वह अहिंसा है । याज्ञ० (११२५८-२६०) ने पितरों की सन्तुष्टि के लिए यज्ञिय भोजन (चावल या तिल), भाँति-भांति की मछलियों एवं कतिपय पशुओं के मांस की आहतियों के काल की अवधियों की व्यवस्था की है। मिताक्षरा को यह कहना पड़ा है कि यद्यपि याज्ञवल्क्य से स्पष्ट है कि श्राद्ध में यज्ञिय भोजन (चावल आदि), मांस एवं मधु की आहुतियाँ सभी वर्गों के लिए व्यव ६५. को वो शयत्रा विधवेव देवरं मयं न योषा कृणुते सधस्थ आ।। ऋ० (१०४०।२)। प्राचीन काल को नियोग-प्रथा के विवरण के लिए देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पृ० ५६६-६०७। कुछ लोग इस श्लोक में पुनर्विवाह की गंध पाते हैं न कि नियोग की, किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है। मनु० (६५) का कथन है कि मन्त्रों में विवाह के सम्बन्ध में नियोग का उल्लेख नहीं है और न पुनर्विवाह को ही चर्चा विवाह विधि में हुई है। किन्तु गौतम तथा कुछ अन्य सूत्रकार और यहां तक कि याज (१६८-६६) भी नियोग की विधि आवि के विषय में व्यवस्थाएं देते हैं। सभी लेखक विधवा के पुनर्विवाह की विधि के विषय में पूर्णरूपेण मौन हैं। अतः यह कहा जाना चाहिए कि ऋ० (१०४०।२) को प्राचीन ऋषियों ने नियोग की प्रपा के रूप में जो मान्यता प्रदान की है, वह ठीक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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