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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त वह लोगों द्वारा अमान्य हो गया है। स्मृतियों के विरोध की स्थितियों में एक अन्य उपाय गोमिल द्वारा उपस्थित किया गया है, यथा-जहाँ पर स्मृति-वाक्यों में विरोध हो वहाँ बहुमत की बात मानी जानी चाहिए ।१४ जैसा ऊपर कहा जा चुका है, स्मृतियों का प्रणयन ई० पू० ५०० के पूर्व हो चुका था और उनका संकलन लगभग ६०० या १००० ई० तक होता रहा, अर्थात् उनका प्रणयन-काल लगभग १५०० वर्षों का है, याज्ञ० (११४-५) ने अपने को जोड़कर १६ स्मतियों का उल्लेख किया है। देखिए इस महाग्रन्थ का प्रथम खण्ड, जहाँ विभिन्न ग्रन्थों द्वारा वणित विभिन्न स्मृतियों की संख्या का उल्लेख हुआ है। यदि अधिक नहीं तो कम-से-कम सौ स्मृतियों के नाम बताये जा सकते हैं। १५०० वर्षों की इस लम्बी अवधि में भारतीय जनता की धार्मिक एवं सामाजिक भावनाओं, उनके आचारों एवं व्यवहारों में महान परिवर्तन हुए होंगे। बौद्धधर्म उठा, बढ़ा और भारत से विलप्त हो गया, जाति-प्रया भोज्याभोज्य, विवाह एवं सामाजिक व्यवहार में कठोर एवं दढ़ हो गयी; वैदिक कृत्य, पूजित देवगण एवं भाषा महान परिवर्तनों के चक्कर में पड़ गयी, पशु-यज्ञ, जो कभी-कभी किये जाते थे, अब उतने उपयोगी एवं फलदायक नहीं माने जाते। अत: धार्मिक साहित्य का नये आदर्शों के अनरूप परिष्कार होना आवश्यक था, यही नहीं, नयी पूजा एवं नये पूजकों के लिए धार्मिक साहित्य को स्वयं ढलना पड़ा। समय-समय पर भावनाओं, विश्वासों, पूजा एवं व्यवहारों में जो परिवर्तन दृष्टि गोचर हुए उन्हें स्मृतियां अपने में बाँधती रहीं और इसी से बहुत-से विरोवों की सृष्टि हो गयी। इसी से, ऐसा प्रतीत होता है कि १०वीं एवं आगे की शतियों के विद्वान् लोगों ने कुछ आचारों एवं व्यवहारों को, जो पहले आज्ञापित थे कलियुग में हानिकारक बताया। एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया कि बड़े-बड़े ऋषियों ने कलियुग के आरम्भ के समय एकत्र होकर ऐसी घोषणा की कि कुछ कृत्य, आचार एवं व्यवहार, जो पहले आज्ञापित थे, कलियुग में वजित होने चाहिए। कलियुग में निषिद्ध एवं वजित कर्मों (जो लगभग ५५ की संख्या में हैं) को 'कलिवर्य' कहा जाता है। इस विषय में हमने इस महाग्रन्थ के खण्ड तीन में विस्तार के साथ पढ़ लिया है। मेधातिथि के भाष्य (मनु. ६११२) से यह प्रकट है कि उनके काल (६ वीं शती) के बहुत पहले से बहुत-से लेखकों ने (मधुपर्क आदि में) गोबध, नियोग, सबसे बड़े पूत्र को अधिक रिक्थ देने की प्रथा की भर्त्सना कर दी थी और यह मत प्रकाशित कर दिया था कि ये व्यवहार एवं आचार केवल अतीत काल में ही कार्य रूप में परिणत होते थे। कलिवयं के विषय पर कुछ गम्भीर विवेचना आवश्यक है। तीन कलिवयं ये हैं-नियोग, ज्योतिष्टोम में अवभृथ के उपरान्त अनुबन्ध्या गौ की आहुति एवं ज्येष्ठ पुत्र को पैतृक सम्पत्ति का अधिकांश देने पर निषेध । ये तीनों वेद द्वारा व्यवस्थित थे या आज्ञापित थे। ऋ० (१०४०।२) से प्रकट होता है कि पति के आध्यात्मिक ६३. दास-नापित-गोपाल-कुलमित्राधंसारिणः। एते शूद्रषु भोज्याना यश्चात्मानं निवेदयेत् ॥ पराशरस्मृति (११।२१)। मिलाइए याज्ञ० (१३१६६) जहाँ लगभग ऐसे ही शब्द हैं एवं 'स्वदासो नापितो गोपः कुम्भकारः कृर्षाबलः ब्राह्मणरपि भोज्याना पञ्चते शूद्रयोनयः॥ देवल, अपरार्क (एप० २४५, याज्ञ० १११६८ पर) द्वारा उन त । नष्टे मते प्रवृजिते क्लीवे च पतिते पतौ। पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ पराशर स्मृति ४।३०, जिस पर पराशरमाधवीय (२३१, ५० ५३) ने टिप्पणी की है : 'अयं च पुनरुद्धाहो युगान्तरविषयः। ६४. विरोधे यत्र वाक्यानां प्रामाण्यं तत्र भूयसाम् । गोभिलस्मृति, मलमासतत्त्व(पृ० ७६७)द्वारा उद्धृत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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