________________
धर्मशास्त्र का इतिहास
वास्तविक मत प्रकाशित करती है और वह स्मृति जो मनु के कथन की विरोधी है, प्रशंसा का पात्र नहीं होती। किन्तु यह समाधान सन्तोषप्रद नहीं था अत: अन्य उपायों का आश्रय लिया गया। एक उपाय था स्वयं मनुस्मृति एवं अन्य ग्रन्थों में जो पहले ही नियम रूप में घोषित था, उसका विरोध करते हुए वचनों को रख देना। दो उदाहरण दिये जा सकते हैं । मन् (३।१३७), जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है) के विरोध में विद्यमान मनु (३।१४-१६) के श्लोक पाये जाते हैं जो उन तीन उच्च वर्गों के लोगों की भर्त्सना करते हैं, जो शूद्र नारी से विवाह करते हैं। मनु ने नियोग की प्रथा की अनुमति दे दी थी (६५६-६२ में), किन्तु आज की मनुस्मृति (६४-६८) ने इसकी घोर निन्दा की है। ये विरोधी उक्तियाँ बृहस्पति को ज्ञात थी, क्योंकि उन्होंने स्पष्ट कहा है कि मनु ने नियोग की अनुमति दी है और स्वयं वे उसे अमान्य ठहराते हैं और कारण बताते हैं, यया-प्राचीन युगों (कृत एवं त्रेता) में लोग तप करते थे और ज्ञानवान थे। किन्तु द्वापर एवं कलि युगों में मनुष्य अतीत युगों के लोगों द्वारा प्राप्त शक्ति खो चुके हैं और इसी कारण नियोग वजित है। स्वयं याज्ञवल्क्य ने प्रस्तावित किया है (२।२१) कि जब दो स्मृतियों में विरोध हो तो गुरुजनों (अवस्था में बड़े लोगों) के व्यवहारों पर आधृत तर्क अपेक्षाकृत अधिक बलशाली होता है। नारद में ऐसा ही नियम दिया हुआ है।' एक अन्य उपाय था यह उद्घोषित करना कि धर्म का स्वरूप चार युगों में अलग-अलग था तथा कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि युगों में धर्मों का प्रवर्तन क्रम से मनु, गोतम शेख-लिखित एवं पराशर द्वारा हुआ।१२ इससे भी सभी कठिनाइयों का समाधान नहीं प्राप्त हो सका, क्योंकि मध्यकालीन टीकाकारों एवं निबन्धकारों को पता चला कि पराशर द्वारा जो आज्ञापित था (ब्राह्मण को अपने दास, गोपाल, नाई, कुलमित्र एवं अधिपरा अर्थात् जो खेत को जोतता-बोतता है और आधा भाग देता है, ऐसे शूद्रों के यहाँ भोजन करने की अनुमति थी तथा कुछ परिस्थितियों में स्त्रियों को पुनर्विवाह की अनुमति है)।
६०. वेदार्थोपनिबन्धृत्वात प्रामाण्यं तु मनुस्मृतौ । मन्वर्थ विपरीता या स्मृति: सा न प्रशरयते। बहरपति, पाज० (२।२१) की व्याख्या में अपरार्क (५० ६२८) द्वारा तथा मनु० (११) की व्याख्या में कुल्लूक द्वारा उद्धत। मनु० (२१७) ने यह अधिकार व्यक्त किया है कि उन्होंने धर्म पर जो कुछ कहा है वह वेद में घोषित है। मनुस्मति में बहुधा वेद के वहीं शब्द आये हैं । यथा ३१ एवं ऋ० (१०६०।१२), २२ एवं वाज० सं० (४०।२), ६८ (जाया के विषय में) एवं ऐत० प्रा० ( ३३॥१, ७वीं गाथा ), ६३२ एवं ऐत० प्रा० (३३-३, चौथी गाथा)।
६१, उक्तो नियोगो मनुना निषिद्धः स्वयमेव तु । युगक्रमादशपयोयं कर्तुमन्य विधानतः ॥ बृहस्पति कुर लूक द्वारा मनु० (६८) पर उदधृत । और देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, पृ० ८६६-८६७ पाद-टिप्पणी, १६८२-८३, जहाँ पर याज्ञ २०२१ के कई पाठान्तर एवं व्याख्याएँ दी हुई हैं । मिलाइए 'धर्मशास्त्र विरोधे तु युक्तियुक्तो विधिः स्मृतः।' नारदस्मृति (११४०) ।
६२. अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे । अन्ये कलियुगे नृणां युगह्नासानुरूपतः॥ मनु० (१॥ ८५) । यही श्लोक शान्तिपर्व (२३२।२७, चित्राओ संस्करण , २२४।२६) एवं पराशरस्मृति (१।२२७, जहाँ
गरूपानुसारतः आया है) में भी आया है; कृते तु मानवो धर्मस्त्रतायां गौतमः स्मृतः. द्वापरे शंख लिखितः कलो पाराशरः स्मृतः ।। पराशरस्मृति (११२४ (स्मृति च० द्वारा उद्धत , १, पृ० ११)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org