SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त १६१ के समान कहे जाते हैं और स्वर्ग की उपलब्धि कराने वाले हैं। तन्त्रवार्तिक ने टिप्पणी की है कि आचरण केवल प्रामाणिक नहीं हो जाते कि उनके लिए कोई दृष्ट अर्थ की धारणा नहीं है; प्रत्युत वे वैसे इसलिए हैं कि उन्हें शिष्ट लोग धर्म के भाग के रूप में व्यवहृत करते हैं। बहुत से कर्म, यथा— कृषि, नौकरी या व्यापार, जो सम्पत्तिप्राप्ति के साधन हैं तथा आनन्द दायक कर्म, यथा-स्वादिष्ट भोजन करना, मद्यपान करना, कोमल बिस्तर पर सोना, सुन्दर मकान या उद्यान की उपलब्धि, जिनमें सभी आर्यों एवं म्लेच्छों में पाये जाते हैं, लोगों द्वारा धर्म का भाग नहीं कहे जाते और ऐसा नहीं कहा जा सकता कि कुछ कर्म, शिष्टों द्वारा धर्म कहे जाते हैं अतः उनके सभी कर्म धर्म कहे जायेंगे । कुमारिल ने इस परामर्श को उद्धृत किया है कि व्यक्ति को उस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जिससे उसके पिता, पितामह एवं अन्य पूर्वपुरुष गये थे और यदि वह मार्ग अच्छा हो और जिस पर चलने से उसकी कोई हानि न हो । ५९ मन् श्रुति (वेद), स्मृति एवं सदाचार ( शिष्टों द्वारा व्यवहृत आचार जैसा कि मनु० १२ १०६ में उसकी व्याख्या उपस्थित की गयी है) के तुलनात्मक बल के विषय में गूढ़ प्रश्न उठ खड़े होते हैं। मिताक्षरा ने याज्ञ० ( ११७, जहाँ धर्मं के पाँच स्रोतों का उल्लेख हैं, यथा-- श्रुति, स्मृति, सदाचार एवं दो अन्य) की व्याख्या में एक सामान्य नियम यह दिया है कि विरोध की स्थिति में पहले वाला अपने से आगे वाले से अपेक्षाकृत अधिक बलशाली होता है । मनु० (१।१२ ) में आया है कि जो लोग धर्म जानना चाहते हैं उनके लिए श्रुति सर्वोत्तम प्रमाण है । अत: श्रुति एवं स्मृति के विशेष में पहले वाला अर्थात् श्रुति वाला प्रमाण मान्य होता है। इस स्पष्ट नियम के विषय में भी कुछ अपवाद होते हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा। किन्तु जहाँ दो स्मृतियों की बातों में विरोध होता है वहाँ षोडशी - न्याय एवं गौतम (११५: 'तुल्य-बल विरोधे विकल्प ) के शब्दों के अनुसार सामान्य नियम विकल्प को मान लेना है। धर्मशास्त्र के बहुत से ग्रन्थ ई० पू० ५०० के बहुत पहले प्रणीत हो चुके थे, क्योंकि गौतम ( २१1७ ) न . एवं 'आचार्या:' ( ३।३५ एवं ४ । १८ में ) का उल्लेख किया है और आप० घ० सू० ( १|६| १६।२-१२) ने इस विषय में कि किसका भोजन ग्रहण किया जाय, कम से कम ६ लेखकों की सम्मतियों का उल्लेख किया है। मनु० (३|१६) ने उस ब्राह्मण की स्थिति के विषय में, जो शूद्र नारी से विवाह करता है, या जिसे उस स्त्री से पुत्र या बच्चा उत्पन्न होता है, चार ऋषियों द्वारा प्रदर्शित तीन मत दिये हैं । स्मृतियों के विरोध के विषय में एक प्रसिद्ध उदाहरण है, मन्० (३|१३), बौ० घ० सू० ( १/८/२), विष्णुधर्मसूत्र ( २४ ११ - ४ ) वसिष्ट ( १।२५ ), पार० गृह्यसूत्र ( १।४) का नियम, जो अनुलोम विवाह की अनुमति देता है और ब्राह्मण को शूद्र नारी से विवाह करने की अनुमति प्रदान करता है । याज्ञ० (१।५६-५७) उन लोगों की इस बात को नहीं मानते जो यह कहते हैं कि तीन उच्च वर्णों के लोग शूद्र नारी से विवाह कर सकते हैं। पश्चात्कालीन स्मृतिकारों एवं निबन्धकारों को यह कहना चाहिए था कि इस सिद्धान्त विरोध में विकल्प का सहारा लेना चाहिए। किन्तु वे ऐसा नहीं कहते। इस प्रकार की स्पष्ट विरोधी स्थितियों से हटने के लिए वे भाँति-भाँति के उपाय ढूंढ़ लेते हैं। प्रथम उपाय बृहस्पति ( लगभग ५०० ई०) ने यह निकाला कि ऐसी स्थितियों में मनुस्मृति का स्थान सर्वोच्च है, क्योंकि यह वेदों का ५६. येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः । तेन यायात्सतां मागं तेन गच्छन्नरिष्यते ॥ मनु० (४) १७८), तन्त्रवार्तिक ( पृ० २११ ) द्वारा उद्धृत, जहाँ कुमारिल ने यों जोड़ा है : 'देषां तु पित्र. दिभिरे वार्थो नाचरितः स्मृत्यन्तरप्रतिषिद्धश्च ते तं परिहन्त्येव । अपरिहन्तो वा स्वजनः दिभिः हरिहीयते । देखिए इस पर मेघातिथि एवं मिता की टीकाएँ । २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy