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धर्मशास्त्र का इतिहास कुमारिल (तन्त्रवार्तिक, पृ० १६४-१६६) का कथन है कि शबर द्वारा १।३।३ पर उद्धृत वचन वेद के विरोध में नहीं पड़ते और १।३।३-४ के अन्तर्गत जो विषय विवेचित हुआ है वह सांख्य, योग, पाशुपत, पाञ्चरात्र एवं शाक्यों के सम्प्रदायों के धर्म के विषयों की प्रामाणिकता प्रकट करता है, कुमारिल के अनुसार ये सभी तीन वेदों के बाहर की बातें हैं और उन्हें अप्रामाणिक मान कर छोड़ देना चाहिए, यद्यपि उनमें कुछ ऐसे विषय पाये जाते हैं, यया-अहिंसा, सत्यता, आत्म-संयम, दान एवं करुणा, जो श्रुति एवं स्मृति के अनकल हैं। उपर्युक्त बातों से यह प्रकट होता है कि कुमारिल बौद्धों द्वारा उपस्थापित एवं अपरिहार्य सद्गुणों से परिचित थे, किन्तु वे उनसे कई बातों में अन्तर रखते थे। वे यह मानने को सन्नद्ध थे कि बौद्ध ग्रन्थों का कुछ मुल्य है और उन्होंने इसकी शिक्षा नहीं दी कि वे ग्रन्थ जला दिये या नष्ट कर दिये या जायँ । अतः यह प्रकट होता है कि वे बौद्ध ग्रन्थों से घृणा नहीं करते थे और न बौद्धों को सताने के पक्षपाती थे, जैसा कि तारानाथ ने लिखा है।।
शबर ने पू० मी० ११३ के सूत्र ५-७ की व्याख्या में कहा है कि ये सूत्र कुछ विशिष्ट धार्मिक कर्मों से सम्बन्धित हैं, यथा--आचमन (जब कोई किसी कृत्य के मध्य में छींक देता है), तभी सभी कर्मों में जनेऊ (यज्ञोपवीत) धारण करना तथा दक्षिण हस्त का प्रयोग। विरोधी का कथन है कि किसी धार्मिक कृत्य में गौण वातों के शीघ्रसम्पादन तथा क्रम में इन कर्मों से अवरोध उपस्थित हो जाता है। शवर ने स्थापना की है कि इस प्रकार के विरोध में कोई तथ्य या बल नहीं हैं। कुमारिल का कथन है कि इन तीन उदाहरणों में शवर की उक्ति ठीक नहीं है। उन्होंने तीनों सूत्रों को दो अधिकरणों में रखा है। सूत्र ५ एवं ६ में कुमारिल अवैदिक के अनुसार ऐसी बातें पायी जाती हैं जो बुद्ध तथा अन्य सम्प्रदायों के प्रवर्तकों के सिद्धान्तों से सम्बन्धित हैं, यथा-मठों एवं उद्यानों का निर्माण, वैराग्य पर बल देना, ध्यान का लगातार अभ्यास, अहिंसा, सत्यवचन, इन्द्रिय-निग्रह, दान, दया-जो ऐसी बातें हैं जो वेद द्वारा भी व्यवस्थित की गयी हैं, शिष्टों के विचारों के विरोध में नहीं पड़ती हैं और न वेदज्ञों में किसी विद्वेष-भावना की उत्पत्ति करती और इसी कारण अवैदिक सिद्धान्तों के वे अंश प्रामाणिक माने जाने चाहिए । कुमारिल द्वारा इस धारणा का इस टिप्पणी के साथ प्रतिकार किया गया है कि केवल १४ (चार वेद, ६ वेदांग, पुराण, न्याय, मीमांसा एवं धर्मशास्त्र) या १८ (चौदह में चार उपवेदों को जोड़ कर) विद्याएँ वैदिक शिष्टों द्वारा धर्म के मामलों में प्रामाणिक मानी गयी हैं तथा बौद्धों एवं अन्य सम्प्रदायों के ग्रन्थ उनमें सम्मिलित नहीं हैं५८ । कुमारिल ने एक उदाहरण दिया है, यथा--दूध, यद्यपि स्वयं पवित्र एवं उपयोगी होता है, किन्तु जब वह कुत्ते के चर्म में भर दिया जाता है तो अनुपयोगी एवं अपवित्र हो उठता है।
कुमारिल के मत से पू० मी० ११३ का सूत्र ७ स्वयं एक अधिकरण है और वह सदाचार (शिष्टों के आचारों एवं व्यवहारों ) की प्रामाणिकता से सम्बन्धित है। तन्त्रवार्तिक में उन्होंने अपनी धारणा व्यक्त की है कि केवल वे प्रयोग या व्यवहार प्रामाणिक हैं जो स्पष्ट वैदिक वचनों के विरोध में नहीं पड़ते, जो शिष्टों द्वारा इस विश्वास से व्यवहृत होते हैं कि वे सद्धर्म (या सदाचरण) हैं और उनके लिए कोई दृष्ट अर्थ (यथा-इच्छाओं की तप्ति या आनन्द या सम्पत्ति की उपलब्धि) की बात नहीं कही जाती। वे ही व्यक्ति शिष्ट कहे जाते हैं जो स्पष्ट रूप से वेदविहित धार्मिक कृत्यों एवं कर्तव्यों का सम्पादन करते हैं। वे आचरण (प्रयोग या व्यवहार), जो परम्परा से चले आ रहे हैं और शिष्टों द्वारा इस धारणा के साथ व्यवहृत होते रहे हैं कि वे धर्म के अंग हैं, धर्म
५८. देखिए याज्ञ० (१३) जहाँ १४ विद्याओं का उल्लेख है । चार उपवेद हैं-आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद एवं अर्थशास्त्र ।
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