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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
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हैं । स्मृतियों के वे अंश जो धर्मं एवं मोक्ष से सम्बन्धित हैं उनका मूल वेद में है अर्थात् वे वेदमूलक हैं, किन्तु वे अंश जो अर्थ एवं काम से सम्बन्धित हैं वे केवल लौकिक व्यवहारों पर आवृत हैं। यही नियम इतिहास ( महाभारत ) एवं पुराणों के स्तुतिमूलक वचनों के लिए भी प्रयुक्त होता है, इतिहास एवं पुराण स्मृति के नाम से ही विख्यात हैं। इन दोनों में जो घटनाएँ एवं गाथाएँ हैं उन्हें अर्थवाद समझना चाहिए । इसके उपरान्त कुमारिल ने पृथिवी के विभागों एवं राज-वंशों ( ये दोनों पुराणों के विषय हैं) के विवरणों की ओर संकेत किया है और उनके अभिप्रायों पर प्रकाश डाला है । ६ वेदांग (व्याकरण, छन्द, शब्द, ज्योतिष आदि ) ऋत्वर्थ एवं पुरुषार्थ के रूप में उपयोगी हैं, तथा मीमांसा एवं न्याय की स्थापना प्रत्यक्ष एवं अनुमान के साधनों से उत्पन्न लौकिक अनुभव से हुई है; तथा मीमांसाशास्त्र में तर्कों का जो विशद संग्रह पाया जाता है वह एक व्यक्ति के बूते की बात नहीं है । वेद की व्याख्या में न्याय की आवश्यकता के लिए वे मनु० ( १२३१०५-१०६) पर निर्भर रहते हैं । कुमारिल यह स्वीकार करने को सन्नद्ध हैं कि उन दार्शनिक सिद्धान्तों को, जिनमें प्रधान एवं पुरुष (सांख्य में) को या परम तत्त्व या परमाणुओं ( वैशेषिक में ) को माना गया है, ऐसा समझ लेना चाहिए कि वे विश्व की सर्जना एवं विनाश की गुत्थी को सुलझाने में समर्थ हैं तथा उन्हें ऐसा जान लेना चाहिए कि मन्त्रों एवं अर्थवादों से उत्पन्न ज्ञान के कारण जो कुछ स्थूल या सूक्ष्म दर्शित है वह कारणों एवं कार्यों में विभाजित है । इनका मन्तव्य है फल एवं कारण के रूप में स्वर्ग एवं योग के अन्तर को विख्यात कर देना । सृष्टि एवं विनाश के निरूपण का मन्तव्य है भाग्य एवं मानवीय प्रयत्न के बीच स्थित अन्तर को स्पष्ट कर देना । कुमारिल और आगे बढ़ते हैं और यहाँ तक मानने को सन्नद्ध हैं कि बौद्धों के वैधर्मिक सिद्धान्त, यथा - ' केवल विज्ञान का अस्तित्व है और प्रत्येक वस्तु नित्य प्रवाह में है और कोई ( नित्य अथवा अमर ) आत्मा नहीं है, जो उपनिषदों के अर्थवाद वचनों से उद्भूत हुए हैं, लोगों को ऐन्द्रियक आनन्द की अत्यधिक अनुरक्ति से दूर रहने की प्रेरणा देते हैं और अपने ढंग से उपयोगी एवं प्रामाणिक हैं।
कुमारिल अन्तर को स्पष्ट करते हुए यह निष्कर्ष उपस्थित करते हैं कि वे स्मृतियाँ ( या उनके वे अंश ), जिनमें ऐसा व्यक्त है कि फल की प्राप्ति इस जीवन में सम्भवतः नहीं होगी, तथा वे अंश जहाँ यह व्यक्त है कि फल मृत्यु के उपरान्त प्राप्त होगा, वेद पर आधृत हैं, ऐसा अनुमान निकाला जा सकता है। किन्तु वृश्चिक विद्या ( मन्त्र से विच्छू के विष को दूर करने की विद्या) के समान वे ग्रन्थ, जो दृष्ट विषयों का निरूपण करते हैं उसी प्रकार प्रामाणिक हैं, क्योंकि फल का प्रत्यक्ष अनुभव उसी प्रकार डंक मारे गये अन्य व्यक्तियों से प्राप्त किया जा सकता है५७ ।
मध्यकाल के धर्मशास्त्र-ग्रन्थ वेद पर आधृत स्मृतियों तथा प्रत्यक्षानुभवों एवं उद्देश्यों (मन्तव्यों) के अन्तर के इस विवेचन की चर्चा करते हैं। उदाहरणार्थ, कल्पतरु ( ब्रह्मचारि काण्ड, पृ० ३०) एवं अपरार्क ( पृ० ६२६६२७) ने भविष्यपुराण ( ब्राह्मपर्व, अध्याय १८१, २२-३१) से श्लोक उद्धृत किये हैं जो स्मृतियों के विषयों को पाँच श्रेणियों में बाँटते हैं और उस विभाजन को उदाहरणों से स्पष्ट करते हैं । स्मृति च० (२, पृ० २४) ने इनमें से दो को उद्धृत किया है और मित्रमिश्व के परिभाषाप्रकाश ( पृ० १६ ) ने सभी को उद्धृत किया है । देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, पृ० ८४०, पाद-टिप्पणी १६३४, जहाँ ये सभी श्लोक दिये गये हैं ।
५७. विज्ञानमात्र - क्षणभङ्ग-नरात्म्यादिवादानामप्युनिषदर्थवादप्रभवत्वं विषयेष्वात्यक्तिकं रागं निवर्तयितुमित्युपपन्नं सर्वेषां प्रामाण्यम् । सर्वत्र च यत्र कालान्तरंफलार्थत्वादिदानीमनुभवासम्भवस्तत्र श्रुतिमूलता । सान्वृष्टिकफले तु वृश्चिकविद्यादौ पुरुषान्तरे व्यवहारदर्शनादेव प्रामाण्यमिति विवेक सिद्धिः । तन्त्रवा० ( पृ० १६८, १।३।२ पर) ।
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