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________________ १५६ धर्मशास्त्र का इतिहास वेदाध्ययन के उपरान्त उससे कहता है कि जब कभी. उसे व्यवस्थित कृत्यों के विषय में सन्देह हो या उचित आचार के विषय में सन्देह हो तो वह अपने देश के ऐसे ब्राह्मणों के आचारों का अनुगमन करे, जो सुविचारणा के उपरान्त कार्य करते हैं, जो कर्त्तव्यशील हैं, जो दूसरों से प्रभावित होकर कोई अन्य कार्य नहीं करते, जो चरित्र में कठोर नहीं हैं और अपने कर्तव्यपालन में सचेष्ट रहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सदाचार धर्म का एक स्रोत है। जैमिनि ने 'स्मृति' शब्द का प्रयोग कई सूत्रों में ग्रन्थों के अर्थ में किया है, ६।८।२३ में आप० गृ० सू० के शब्द पाये जाते हैं । शबर ने 'स्मृति' शब्द का प्रयोग किया है और स्मरति' एवं 'स्मरन्ति' को एक दर्जन से अधिक बार प्रयुक्त किया है। निम्नलिखित वचन द्रष्टव्य हैं । पू० मी० सू० (१।३।२) पर शबर का कथन है--'प्रमाणं स्मृति:५२, पू० मी० सू० (१।३।३) पर उन्होंने तीन स्मृति-नियम दिये हैं, जिनमें दो विद्यामान स्मृतियों में पाये जाते हैं। पू० मी० सू० (६।१।५), में जहाँ पशु आदि हीन प्राणियों की चर्चा है और ऐसा प्रश्न उठाया गया है कि ऐसे पशुओं को वैदिक कृत्यों के लिए अधिकार है कि नहीं, तो शबर ने इस प्रकार के अधिकार को नहीं माना है, क्योंकि वे वेदाध्ययन नहीं करते और न स्मृति शास्त्र ही जानते (जैसा कि मनुष्य लोग जानते) हैं। पू० मी० सू० (६।२।२१-२२) पर (जहाँ यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या वे स्मार्त नियम, यथा-गुरु का अनुगमन करना चाहिए, आज्ञापालन करना चाहिए, उन्हें प्रणाम करना चाहिए, वृद्ध व्यक्ति का सम्मान उटकर करना चाहिए, उन बच्चों के लिए भी प्रयुक्त होते हैं, जिनका उपनयन न हुआ हो) शबर का कथन है कि स्मृति वेद के समान है (वेदतुल्या हि स्मृतिः, वैदिका इव पदार्था स्मर्यन्त इत्यक्तम्) । ६।८।२३ पर शबर ने एक श्लोक को स्मृति कहकर उद्धृत किया है, (स्मरन्ति-तेषु कालेषु द्वैवानि-इति)। ६।७।३१ पर उनका कथन है कि स्मृति ने गन्धर्वो को एक सहस्र वर्षों तक जीवित रहते लिखा है। ६।१।२० पर शवर का कथन है कि स्मति के अनुसार स्त्री के पास सम्पत्ति नहीं होती, किन्तु श्रुति के अनुसार सम्पत्ति पर उसका स्वत्व रहता है। ६।२।२ पर शबर ने कहा है-'नैषा स्मृतिः प्रमाणमं दृष्टमूला ह्येषा'; १०।१।३६ पर शबर का वचन है कि शिप्ट लोगों के व्यवहार से स्मृति का अनुमान किया जाता है और स्मृति से श्रुति वचन का अनुमान किया जाता है। १०।१।४२ पर शबर का कथन है कि स्मृति व्यवहार से अधिक शक्तिशाली है। १०।३।४७ पर शबर की उक्ति है--'एक स्मृति ५२. अष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि वेद ब्रह्मचर्यचरणं जातपुत्रः कृष्णकेशोऽग्नीनादधीत इत्यनेन विरुद्धम् । क्रीतराजकोऽभोज्यान्न इति तस्मादग्नीषोमीय संस्थिते यजमानस्य गृहेऽशितव्यमित्यनेन विरुद्धम् । शबर १।३।२ पर। बौ० ध० सू० (१।२।१) में आया है : 'अष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि वेदब्रह्मचर्यम्' । आप० ध० सू० (१।६।१८।१६ एवं २३) में 'संघान्नमभोज्यम्'। दीक्षितोऽक्रीतराजकः । मनु० (१०८६) ने घोड़ों एवं ऐसे पशुओं के विक्रय को मना किया है जो एकशफ होते हैं, किन्तु तं० सं० (२।३।१२।१) ने यह कह कर कि वरुण उसको पकड़ लेता है जो अश्व के दान को ग्रहण करता है, व्यावहारिक रूप से उसकी वर्जना कर दी है। ऋग्वेद ने अश्वों के दाताओं की बड़ी प्रशंसा की है, यथा-१०।१०।७।२ 'उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुर्ये अश्वदाः सहते सूर्येण' । 'पूर्व मीमांसा इन इट्स सोर्स' के पृ० २२६ पर गंगानाथ झा ने ऐसा अनुवाद दिया है : "सिंहों, घोड़ों आदि को दान में देना, स्वीकार करना एवं क्रय करना या विक्रय करना...'। केसरिन (केसरी) का अर्थ है सिंह, और विशेषण के रूप में इसका अर्थ है, 'अयाल वाला' और सिंह को विशेषता प्रकट करता है। डा० झा का यह अनुवाद अशुद्ध है। देखिए इस महाप्रन्थ का खण्ड २, ५० ८५०, पाद-टिप्पणी १६४७ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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