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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त (ऋ० १०।१०६।६) या 'इन्द्रः सोमस्य काणुका' (ऋ० ८।७७४) ऐसे मन्त्रों में कुछ शब्दों का अर्थ (जिसके विषय में ऐसा तर्क किया जाता है कि उनका कोई अर्थ नहीं है) निरुक्त एवं व्याकरण की सहायता से, वास्तव में, जाना जा सकता है, 'कीकट', 'नचाशारव' एवं प्रमगण्ड ऐसे कुछ शब्द, जिनसे क्रम से एक देश, एक नगर एवं एक राजा की ओर संकेत मिलता है और इसीलिए वे मन्त्र (ऋ० ३१५३।१४) को अनित्य सूचित करते हैं, एक अन्य प्रकार से व्याख्यायित हो सकते हैं। इस प्रकार वेद का कोई अंश अनर्थक या अनित्य नहीं है। मीमांसक लोग वेद के शब्दों एवं वाक्यों के अनार्थक्य को दूर करने में बड़े सचेष्ट रहते हैं। प्रथम अध्याय के तृतीय पाद में जैमिनि ने स्मृतियों, शिष्ट लोगों के व्यवहारों, सदाचारों, वेदांगों आदि की प्रामाणिकता के विषय में विवेचन किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैमिनि द्वारा सूत्रों के प्रणयन के पूर्व स्मृतियाँ महत्त्व को प्राप्त कर चकी थीं, तथा धर्म के स्रोत के रूप में शिष्टों के आचार स्वीकृत हो चुके थे। गौतम, आपस्तम्ब, तथा अन्य लोगों के धर्मसूत्रों ने ऐसी घोषणा कर दी थी कि वेद, स्मृतियाँ, वेदज्ञों के व्यवहार धर्म के मूल हैं । अतः शान्तिपर्व (१३७।२३, १३५।२२ चित्रा संस्करण) ने धर्मशास्त्रों का उल्लेख किया है और अनुशासन पर्व (४५॥ १७) ने यम के धर्मशास्त्र से गाथाएँ उद्धृत की हैं। अत: जैमिनि को इस बात पर विचार करना पड़ा कि स्मृतियाँ एवं शिष्टाचार धर्म के विषय में प्रमाण हैं कि नहीं, और यदि हैं तो किस सीमा तक । यदि स्मृतियाँ अप्रामाणिक मान ली जाती तो वेद की प्रामाणिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता; किन्तु पू० मी० सू० के प्रथम सूत्र ने स्वीकार किया कि वह ग्रन्थ (पू० मी० सू०) धर्म की विशेषताओं के प्रश्न पर विचार करेगा, इसीलिए स्मृतियों का, जो धर्मशास्त्र के नाम से विख्यात थीं, (मनु २०१०), सम्बन्ध धर्म के निरूपण के साथ लगाया गया। इसके अतिरिक्त पू० मी० सू० के ६७।६ से प्रकट होता है कि जैमिनि को धर्मशास्त्रों के विषय में जानकारी थी, क्योंकि उन्होंने ऐसी व्यवस्था दी है कि विश्वजित् यज्ञ में कर्ता। किसी शूद्र को इस बात पर दान का विषय नहीं बना सकता कि वह (अर्थात् शूद्र ) धर्मशास्त्र के आदेशों के आधार पर उच्च जाति के किसी व्यक्ति की सेवा करता है । उपनिषदों में भी (यथा तै० उप० १।११), गुरु शिष्य के यितव्यः । यथा सृण्येव जरी तुर्फरीत् इत्येवमादीन्यश्विनोरभिधानानि द्विवचनान्तानि लक्ष्यन्ते ।' 'सृष्येव जरी तुर्फरीत ऋ० (१०।१०६।६) में आया है। 'निगम.. .कल्पयितव्य' शबर भाष्य (पू० मी० सू० १३.१०) में भी आया है। तन्त्रवातिक (पृ० २५६, १॥३॥२४ पर) में ऐसा आया है : 'कात्स्न्यपि व्याकरणस्य निरुक्ते होनलक्षणाः प्रयोगा बहवो यद्वद् ब्राह्मणो ब्रवणादिति'। निरुक्त (१११५) में 'तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य काय॑म्' नामक शब्द आये हैं। देखिए तन्त्रवार्तिक (प० २६८-२६६) जहाँ निरुक्त की ओर संकेत किये गये हैं। पू० मी० सू० (१११११२४) में शबर ने भावप्रधानमाख्यातं (निरुक्त १११) को उद्धृत किया है। ५०. वेदो धर्ममूलं तद्विदां च स्मृतिशीले। गौतम (१२); धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेटाश्च । आप० घ० सू० (१।१।१।२-३)। तस्य च व्यवहारो वेदो धर्म शास्त्राण्यङगान्युपवेदाः पुराणम् । गौतम (११११६), जिसके विषय में हरदत्त ने व्याख्या की है : 'तस्य राज्ञः व्यवहारो लोकमर्यादा स्थापनम् । देखिए मनु० (२१६) एवं याज्ञ० (१७)। ५१. शूद्रस्य धर्मशास्त्रत्वात् । पू० मी० सू० (६७६): विश्वजित्येव सन्दिह्यते । किं परिचारक: शूद्रो देयो नेति। ...एवं प्राप्ते ब्रूमः । शूद्रश्च न देय इत्यन्वादेशः। कुतः धर्मशास्त्रत्वात् धर्म शासनोपनतत्वा. तस्य। देखिए मनु० (१०।१२३) एवं गौतम (१११५७-५६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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