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धर्मशास्त्र का इतिहास अदृश्य एवं आध्यात्मिक फल की प्राप्ति होती है) के समान व्यवस्थित क्रिया के स्थान पर कोई प्रतिनिधि नहीं होता, क्योंकि जो अदृश्य फल उत्पन्न करने वाला होता है वह आरादुपकारक कहलाता है, किन्तु चावल के धानों (जिनसे पुरोडाश बनाया जाता है) के स्थान पर किसी प्रतिनिधि का प्रयोग हो सकता है, क्योंकि चावल के अन्न (धान) सन्निपत्योपकारक होते हैं और दृश्य उद्देश्य लेकर चलने वाले होते हैं, यथा पुरोडाश बनाना। वेदान्त-सूत्र (४।१।१६) के भाष्य में शंकराचार्य ने कहा है कि ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्ति द्वारा आवश्यक वैदिक कृत्यों (यथा, अग्निहोत्र) का सम्पादन, आरादुपकारक के रूप में सहायक होता है।
पूर्वमीमांसा ने व्याख्या के लिए वेद एवं स्मतियों के अतिरिक्त लोक या लोकवत (सामान्य की उक्तियों) का भी आश्रय लिया है । उदाहरणार्थ, ११२।२०, १।२।२६, २।१।१२ (लोकवत्), ४१६ ('तथा च लोक भूतेषु' अर्थात् 'लोकेपि'), ६।२।१६ (लोके कर्माणि वेदवत्ततोऽधिपुरुषज्ञानम् ), ६।५।३४ (न भक्तित्वादेशा हि लोके), ६।८।२६ (याञ्चत्रयणमविद्यमाने लोकवत्), १७।४।११ (लिंगहेतुत्वादलिंगे लौकिक स्यात्), ८।२।२२ (पयोवातत्प्रधानत्वाल्लोकवद्धनस्तदर्थत्वात्) यह दृष्टान्त देता है कि दूध जमाने के लिए थोड़ा दही पर्याप्त है; ८८।६ (न लौकिकानाम् आदि, यहाँ लौकिक का अर्थ है 'लोकानाम्'); १०।३।४४ (शब्दार्थश्चापि लोकवत्), १०।३।५१, १०।६।८, १०७६६ (लोकवत्, शबर ने कहा है : 'यथा मत्स्यान् न पयसा समश्नीयात्), ११।१।२३, २६, ६२ । स्वयं शबर ने अपने भाष्य (पू० मी० सू० ३।४।१३, एवं 'वर्ण्यमाने लौकिकन्यामानुगतः सूत्रार्थो वर्णितुं, भविष्यति', पृ० ६२६) में 'लौकिकन्याय' का प्रयोग किया है।
जैमिनि ने प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में धर्म के विषय में वेद के नित्यस्वयंभू एवं नितान्त प्रामाणिक स्वरूप का निरूपण किया है और ज्ञान के साधनों तथा शब्दों एवं अर्थों के पारस्परिक नित्य स्वरूप पर भी विवेचन उपस्थित किया है । प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद में उन्होंने उद्घोषणा की है कि वे अर्थवाद, जो वेद के अधिकांश भाग के रूप में हैं, उन विधियों की प्रशंसा के निमित्त उपस्थित किये गये हैं, जिनके साथ वे सम्बधित हैं और उन्हें व्यर्थ नहीं समझना चाहिए। उन्होंने इसकी उद्घोषणा भी की है कि मन्त्रों (जो वेद के अंग हैं) का एक उद्देश्य है, और वह है सम्पादित कृत्यों के अर्थ का मन में पुन: प्रत्यावाहन । उन्होंने यह भी कहा है कि 'चत्वारि शृंगा' ४५ (ऋ० ४१५८।३) ऐसे मन्त्र रूपक के रूप में याग की स्तुति में हैं, 'जर्भरी तुर्फरीत्'
४६. 'चत्वारि शृंगा' के विषय में विरोध एवं उद्धरण पू० मी० सू० (१।२।३१) में उठाये गये हैं और उनका उत्तर ११२।३२-३५ में दिया गया है। पू० मी० सू० (१।२।३८) में 'चत्वारि शृंगा' के श्लोक का निरूपण है। इस श्लोक की व्याख्या निरुक्त (१३।७), पतञ्जलि के महाभाष्य, शबर, कुमारिल (तन्त्रवातिक, पृ० १५५-१५६), दुर्गा एवं सायण द्वारा की गयी है। इन व्याख्याओं में बड़ा विभेद है, '(कुमारिल भी शबर से इस विषय में बहुत भिन्नता रखते हैं) । जरी तुर्फरीत् आश्विनों की उपाधियाँ हैं और उनकी व्याख्या निरुक्त (१३॥५) में हुई है। काणुका (निरुक्त ५११०), कोकट तथा अन्य शब्द निरक्त (६।३२) में व्याख्यायित हुए हैं। यास्क का कथन है : 'कोकट वह देश है, जहाँ अनार्य रहते हैं। किन्तु तन्त्रवार्तिक (पृ० १५८) ने सर्वप्रथम इसे एक देश के अर्थ में माना और निश्चित किया कि एक देश नित्य है। इसके उपरान्त कुमारिल ने प्रस्तावित किया है कि 'कोकट' का अर्थ है 'मुष्टि-बन्ध', प्रमगण्ड का अर्थ है, 'अधिक ब्याज खाने वाला' तथा 'नेचा-शाखम्' का अर्थ है 'नपुंसक व्यक्ति' । शबर ने पू० मी० सू० (१।२।४१, पृ० १५६-१५७) पर लिखा है : 'विद्यमानोप्यर्थः प्रमादालस्यादिभिनोंपिलन्यते। निगमनिरुक्तव्याकरणवशेन धातुतीर्थः कल्प
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