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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त है कि 'घोड़ा नहीं बेचना चाहिए'। एक स्थान पर शबर ने 'प्रमाणे स्मृती' के स्थान पर 'प्रमाणायां स्मृतो' शब्दों का प्रयोग किया है और तन्त्रवातिक ने बड़ा कष्ट करके यह प्रदर्शित करना चाहा है कि शबर की यह त्रुटि किसी प्रकार १।३।३ पर ठीक है । बौधायन धर्मसूत्र (१।१।१६-२६) ने दक्षिण भारत में व्यवहृत पाँच आचरणों तथा उत्तर भारत के पाँच आचरणों का उल्लेख किया है और कहा है कि यदि दक्षिण या उत्तर वाले अपने से विपरीत आचरणों का व्यवहार करेंगे तो वे पापी कहे जायेंगे। विरोधी कहता है५३ कि स्मृतियों का परित्याग कर देना चाहिए, क्योंकि वे मनुष्यों द्वारा प्रणीत हैं (अर्थात् वे पौरुषेय हैं, अपौरुषेय नहीं, जैसा कि वेद है) और मनुष्य लोग बहुधा भ्रमित एवं विस्मरणशील होते हैं। विरोधी का यही प्रमुख आधार है। इसका उत्तर यों है कि स्मृति की व्यवस्थाओं के लिए वेद में ऐसे वचन पाये जाते हैं जो स्मृति के कुछ नियमों की ओर निर्देश देते हैं, यथा-अष्टका श्राद्ध स्मृतियों के बहुत पहले से प्रचलित था और वह वैदिक मन्त्र 'यां जनाः प्रतिनन्दन्ति' में सांकेतिक रूप से उपस्थित है। गुरु की आज्ञा के पालन एवं यात्रियों के लिए जलाशय की व्यवस्था करने के व्यवहारों में जाना हुआ उद्देश्य (अर्थात् अन्य लोगों के लिये उपकार) है। वेद में भी 'प्रपा' (ऋ० ६४१) शब्द आया है, 'धन्वन्नीव प्रपा असि' अर्थात हे अग्नि, तुम मरुस्थल में प्रपा के समान हो'। इस बात पर तथा आगे आने वाले सूत्रों के विषय में तन्त्रवार्तिक ने विशद रूप से लिखा है और भाष्यकार से कई स्थानों पर भिन्न मत प्रकट किया है, उनके दोष को बताया है और विवेचन के लिए अन्य विषय उपस्थित किये हैं। स्मृतिव्यवस्थाओं के लिए दो सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है, जिनके लिए वैदिक संकेतों का पता चलाना असम्भवसा है। तन्त्रवातिक (१४३१ पर, पृ० १६४) ने प्रथमतः कहा है कि 'स्मृति, की व्यवस्थाएँ (अथवा नियम या आदेश) विस्मृत वैदिक शाखाओं पर आधृत हो सकती हैं, या (द्वितीयतः) वे आज के प्रस्तुत (विद्यमान), वैदिक अंशों पर आधृत हो सकती हैं। यदि कोई यह पूछे, 'वे क्यों नहीं पायी जातीं' ?' तो कुमारिल ने उत्तर दिया है-'वेद की बहुत-सी शाखाएँ (बहुत-से देशों में) बिखरी पड़ी हैं, मनुष्य लोग प्रमादी हैं, वचन वेद के विभिन्न प्रकरणों में पड़े हुए हैं। इन्हीं कारणों से उन वचनों को बताया नहीं जा सकता जिन पर स्मृतियाँ आधारित हैं ५४ । ५३. धर्मस्यमूलत्वादशब्दमनपेक्षं स्यात् । अपि वा कर्तृ सामान्यात् प्रमाणमनुमानं स्यात् ।।३।१-२॥ 'कर्तृ सामान्यात्' की व्याख्या भाष्यकार ने यों को है: 'कतृ सामान्यास्त्स्मृति-वैदिकपदार्थयोः, 'अर्थात् वे लोग जो वैदिक कृत्य करते हैं और साथ ही साथ स्मृति की व्यवस्थाओं का पालन करते हैं, एक-से हैं; वे वैसा कभी न करते यदि उनमें ऐसा विश्वास न होता कि स्मृति-व्यवस्थाएँ वैदिक प्रमाण पर आधारित हैं; यद्यपि प्रत्येक विषय में वैदिक वचनों को स्पष्ट रूप से या उपलक्षित रूप बता देना सम्भव नहीं है। मेधातिथि ने मनु० (२६) पर इसे स्पष्ट रूप से लिखा है और अपने ग्रन्थ स्मृतिविवेक से निम्नलिखित श्लोक उद्धत किया है : 'प्रामाण्यकारणं मुख्यं वेदविभिः परिग्रहः । तदुक्तं कतृ सामान्यादनुमानं श्रुतीः प्रति ।। रेखांकित शब्द पू० मी० सू० (११३०२) से लिये गये हैं। मनुस्मृति (२७) में आया है : 'यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः । स सर्वोभिहितो वेदेसर्वज्ञानमयो हि सः॥' मेघातिथि, गोविन्दराज एवं अन्य टीकाकारों ने 'सः' को वेद के लिए माना है, किन्तु कल्लूक ने इसे मनु के लिए प्रयुक्त समझा है। देखिए इस महाग्रंथ का खण्ड ३, पृ० ८२८, पाद-टिप्पणी १६१२ जहाँ इन शब्दों का अन्य अर्थ उपस्थित किया गया है। ५४. तेन वरं...प्रलीनश्रुत्यनुमानमेव.... । यद्वा विद्यमानशाखागतश्रुतिमूलत्वमेवास्तु। कथमनुपलब्धिरिति चेदुच्यते--शाखानां विप्रकीर्णत्वात्पुरुषाणां प्रमादतः । नाना प्रकरणस्थत्वात् स्मृतेर्मूलं न दृश्यते ॥ तन्त्रवार्तिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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