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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास मन् (४७) ने व्यवस्था दी है कि द्विज को उतना अन्न एकत्र करना चाहिए कि एक कंडाल (कोठिला) मर जाय (अर्थात् जो एक वर्ष तक चले), या एक कुम्भी (६ मासों के लिए) या उतना इकट्ठा करना चाहिए कि तीन दिनों तक चले, या कल की भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए । ये चार विकल्प हैं और तब मनु (४१८) ने व्यवस्था दी है कि गहस्थ द्विज को इन चारों में एक विकल्प ग्रहण कहना चाहिए, किन्तु प्रत्येक आगे वाला अपने पीछे वाले से फल तथा परलोक सम्बन्धी पूण्य के विषय में उत्तम है। विकल्प या तो व्यवस्थित (किसी एक प्रकार की अवस्थाओं तक सीमित या नियन्त्रित रहने वाला) हो या अव्यवस्थित (अनियन्त्रित) । आप० घ० स० (२।२।३।१६) में आया है. ८ 'व्यक्ति को औपासन अग्नि या रसोई की अग्नि में प्रथम ६ मन्त्रों के साथ अपने हाथ से बलि देनी चाहिए'। हरदात ने टीका की एक व्यवस्थित (सीमित) विकल्प है', अर्थात् जिन्होंने औपासन अग्नि (गृहाग्नि) रख छोड़ी हो उन्हें प्रतिदिन बलि देनी चाहिए किन्तु साधारण रसोई की अग्नि में केवल वे ही लोग बलि छोड़ें जिनकी पत्नी मर गयी हो। मन० (३१८२) में आया है कि व्यक्ति को प्रतिदिन अन्न, जल, दुग्ध आदि से श्राद्ध करना चाहिए। यहाँ पर व्यवस्थित विकल्प है। क्योंकि सर्वप्रथम अन्न की व्यवस्था है और तब उसके अभाव में दूध, फलों एवं मलों की और पुनः इनके अभाव में जल की व्यवस्था है। जब मनु (४६५) ऐसा कहते हैं कि 'श्रावण की पूर्णिमा को या भाद्रपद की पूर्णिमा को उपाकर्म कृत्य करके ब्राह्मण को साढ़े चार मासों तक परिश्रमपूर्वक वेद का अध्ययन करना चाहिए' तो मेघातिथि ने इसे व्यवस्थित विकल्प माना है, अर्थात् सामवेदियों को भाद्रपद की पूर्णिमा को तथा ऋग्वेदियों एवं यजुर्वेदियों को श्रावण की पूर्णिमा को उपाकर्म करना चाहिए । देखिए मितक्षरा (याज्ञ० १२२५४) जहाँ माता के सपिण्डन के विषय में चर्चा है और परस्पर विरोधी उक्तियों को क्रम से रखा गया है। जब गौतम (३।२१) ने कहा है कि संन्यासी को अपना सिर पूर्णरूपेण मुंडा लेना चाहिए या केवल शिखा रख लेनी चाहिए, तो यहाँ पर व्यक्ति की इच्छा पर आधारित विकल्प है। गौतम (२१५१-५३), आप० ध० सू० (१।२।११), मनु (३।१) ने वेदाध्ययन के ब्रह्मचर्य की ४८, ३६, २४,१२, ३ वर्षों की अवधि दी है। यहाँ विद्यार्थी की इच्छा एवं समर्थता पर विकल्प निर्भर है। यह द्रष्टव्य है कि व्यवस्थित विकल्प में आठ प्रकार के दोष नहीं पाये जाते और न वे वहीं पाये जाते हैं जहाँ विकल्प किसी व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर होता है या जहाँ विकल्प स्पष्ट वचनों द्वारा व्यक्त किया जाता है। आठ प्रकार के दोष केवल तर्क द्वारा उपस्थित विकल्प में ही पाये जाते हैं। ___ मीमांसा बालप्रकाश (पृ० १५३-१६५) ने विकल्पों के विभाजनों एवं उपविभाजनों की एक लम्बी सूची दी है। पतंजलि के मतानुसार शास्त्र का मन्तव्य ही है निश्चित व्यवस्था उपस्थित करना १८ और इसीलिए सभी शास्त्रीय ग्रन्थ विकल्पों को न्यूनातिन्यून संख्या तक लाने का प्रयास करते हैं और स्पष्ट परस्पर विरोधी उक्तियों के लिए पृथक् एवं निश्चित विषय व्यवस्था करते हैं। कभी-कभी विकल्प इतने अधिक हो जाते हैं कि टीकाकार लोग उनके लिए पृथक् क्षेत्र-व्यवस्था देना छोड़ देते हैं, यथा-मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२२) ने क्षत्रियों, ४८. न इयव्यवस्थाकारिणा शास्त्रेण भवितव्यम् । शास्त्रतो हि नाम व्यवस्था। महाभाष्य, वार्तिक ४ (तथा चानवस्था) पाणिनि (६३१११३५) पर ; एवमनकोच्चावचाशौचकल्पा दर्शिताः । तेषां लोके समाचाराभावान्नातीव व्यवस्था प्रदर्शनमुपयोगीति नात्र व्यवस्था प्रदर्यते। मिता० (यान० ३।२२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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