________________
पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त करता है" एवं "वह अतिरात्र में 'षोडशी' पात्र नहीं ग्रहण करता है"। इस परस्पर विरोधी बात में विकल्प की अनुमति है। इसी प्रकार एक वैदिक वाक्य है-'व्रीहिभियजेत यवैर्वा' ( वह धानों से या जो से यज्ञ करे )। अतः, उपर्युक्त दोनों उदाहरणों में जहाँ दो उक्तियाँ परस्पर विरुद्ध हैं, वहां विकल्प के सहारे के अतिरिक्त कोई अन्य गति नहीं है। किन्तु विकल्प में आठ दोष पाये जाते हैं। इसी कारण विकल्प का परिहार (त्याग) करना चाहिए, और यथासम्भव पर्यदास या अर्थवाद को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि विकल्प का आश्रय लेने से किसी एक उक्ति को अप्रामाणिक मानना होगा। शबर एवं तन्त्रवार्तिक ने ऐसी व्यवस्था दी है कि वहीं विकल्प का आश्रय लेना चाहिए जहाँ कोई अन्य मार्ग न हो। पू० मी० सू० ने व्यवस्था दी है कि वहीं विकल्प ग्रहण करना चाहिए जहाँ एक ही विषय में एक ही अर्थ वाले अनेक प्रामाणिक वचन कहे गये हों।
___एक अन्य शब्द है नित्यानुवाद जिसकी व्याख्या हो जानी चाहिए। यह शब्द, आप० घ० सू० (२।६।१४।१३) में आया है। यह जैमिनि (२।४।२६, ४।११५, ६१७।३०, ७।४।५, ८१६, ११३६, १०।२।३८ में) बहधा आया है और शबर ने उससे भी अधिक बार इसका प्रयोग किया है। शबर ने व्याख्या की है कि जब वैदिक वचन स्पष्ट रूप से किसी ऐसी बात का प्रतिषेध करते हैं जिसके घटने की कोई सम्भावना नहीं होती तो ऐसी स्थिति में नित्यानुवाद होता है (यथा-अग्निचयन खाली भूमि या आकाश या स्वर्ग में नहीं होना चाहिए)। इसी बात को टुप्टीका ने दूसरे ढंग से कहा है-'जब प्रतिषेध अर्थवाद हो जाता है तो वह नित्यानुवाद कहलाता है।
विकल्पों को तीन कोटियों में बाँटा गया है, यथा-(१) ऐसे विकल्प जिनके पीछे तर्क उपस्थित किया जाय, (२) जो व्यक्त (स्पष्ट) शब्दों के कारण प्रकट हों तथा (३) जो कर्ता की इच्छा पर आश्रित हों। प्रथम का उदाहरण 'यवैब्रीहिभिर्वा यजेत' (चावल के अन्नों या जौ के अन्नों से यज्ञ करना चाहिए) में पाया जाता है। दूसरे प्रकार के विकल्पों के लिए देखिए मन् (३।२६७) जहाँ यह आया है कि जब तिल या चावल या यव या माष की दाल या जल या फल एवं मूल से तर्पण किया जाता है तो पितर लोग सन्तुष्ट होते हैं।
व्यक्ति की इच्छा पर आश्रित विकल्प का उदाहरण जाबालोपनिषद् । ७ में पाया जाता है-'ब्रह्मचर्य समाप्त कर गृहस्थ होना चाहिए, गृहस्थ होने के उपरान्त (वानप्रस्थ आश्रम में जाना चाहिए और वनी होने के उपरान्त संन्यासी (या परिव्राट) होना चाहिए; या दूसरी विधि के अनुसार ब्रह्मचर्य की समाप्ति, या गृहस्थ होने, या बनी होने के उपरान्त कोई संन्यासी हो सकता है। इस कथन का अन्तिम भाग आश्रमों के विषय में विकल्प उपस्थित करता है । गौतम (३।१) में आया है-'कुछ ऋषियों ने उसके (ब्रह्मचारी के लिए आश्रमों के विषय में विल्कप रख दिया है। जब याज्ञ० (१।१४) ने व्यवस्था दी है कि ब्राह्मण लड़के का उपनयन गर्भाधान या जन्म के उपरान्त आठवें वर्ष में हो सकता है, तो यहाँ पिता की इच्छा पर विकल्प निर्भर होता है।
४६. असति प्रसङ्गे प्रतिषेधो नित्यानुवादः । शबर (१।२।१८ पर); यथार्थवादत्वेन प्रतिषेधस्तत्र नित्यानुवावो भवति । टुपटीका (७।३।२१); ६४१३६ (परो नित्यानुवादः स्यात्) पर शबर ने व्याख्या दी है : 'नित्यमेतमर्थ सन्तमनुवदति' ।
४७. ब्रह्मचर्य परिसमाप्य गृही भवेत् । गृही भूत्वा वनी भवेत् । धनी भूत्वा प्रव्रजेत् । यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रवजेद गृहाद्वा बनाया। जाबालोप० ४। इसे शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र (३।४।२०) के भाष्य में निम्नलिखित टिप्पणी के साथ उद्धृत किया है : 'अनपेक्ष्यव जाबाल श्रुतिमाश्रमान्तर विधायिनीमयमाचर्येण विचारः प्रवतितः'।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org