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________________ १५० धर्मशास्त्र का इतिहास 'पर्युदास' (अपवाद) वही है जहाँ दूसरे शब्द के साथ (अर्थात् किसी क्रिया की धातु के साथ या किसी भिन्न शब्द, यथा-संज्ञा के साथ) अभावात्मक रूप आता है। 'निषेध' वहाँ होता है जहाँ पर क्रिया के साथ अभावात्मक रूप पाया जाता है। धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में 'न' की बहुधा ऐसी व्याख्या की गयी है कि यह पर्युदास (अपवाद या मना करने की एक व्यवस्था ) है । याज्ञ० (१।१२६-१६६) में स्नातक के कर्तव्यों वाले परिच्छेद में 'न' का बहुधा उल्लेख हुआ है। मिताक्षरा ने याज्ञ० (१११२६) की व्याख्या में लिखा है कि जहाँ कहीं 'न' आया है वह पर्युदास का द्योतक है (सर्वत्रापि अस्मिन् स्नातकप्रकरणे नत्र,- शब्दः प्रत्येक पर्युदासार्थ इव) । हम एक उदाहरण लें, याज्ञ० (१।३२) में आया है कि जो बात दुखदायक हो उसे अनावश्यक या अकारण किसी (पुरुष या नारी) से नहीं कहना चाहिए। इससे यह नहीं प्रकट होता कि जो बात दुःखदायक हो उसे नहीं कहना चाहिए, केवल उस स्थिति में उसे नहीं कहना चाहिए जब कि उसके लिए कोई कारण या अवसर न हो। त्रुटि करने वाले अपने पुत्र या मित्र या सम्बन्धी से दुखदायक बात कही जा सकती है। 'पुत्रवान् व्यक्ति को कुछ तिथियों पर उपवास नहीं करना चाहिए' इस प्रकार की बात की व्याख्या में अपरार्क (पृ. २०६-२०७) ने दो प्रसिद्ध श्लोक उद्धृत किये हैं जिनसे 'पर्युदास' एवं 'प्रतिषेध' का अन्तर स्पष्ट होता है। उन श्लोकों के पूर्वा इस प्रकार हैं-'प्रधानत्वं विधौ यत्र प्रतिषेधेप्रधानता (पर्युदासः...ना ) ।। अप्राधान्य विधौ यत्र प्रतिषेधे प्रधानता । प्रसज्यप्रति....ना।। जब 'न' का प्रयोग किसी वाक्य में होता है तो वह या तो प्रतिषेध होता है या पर्युदास या अर्थवाद होता है। इन तीनों का अन्तर स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। दर्शपूर्णमास में दो आज्यभाग अंग हैं (पू० मी० सू० ४।४।३०) तथा कहा गया है कि दो आज्यमाग दर्शपूर्णमास यज्ञ की आँखें हैं । इस सम्बन्ध में वेद का कथन है कि किसी पशुयज्ञ में या सोमयज्ञ में इन दोनों का सम्पादन नहीं होता।' प्रश्न यह है- 'क्या यह प्रतिषेध है या पर्युदास है या अर्थवाद है ?' प्रतिषेध तभी होता है जब जो आगे होने वाला होता है उसके प्रतिषेध की सम्भावना होती है। दर्शपूर्णमास में आज्यभागों की व्यवस्था रहती है अत: सोमयज्ञ में इन दोनों की आवश्यकता की सम्भावना नहीं है और कोई वास्तविक प्रतिषेध भी नहीं है; और न पर्युदास ही है, क्योंकि यदि यह पर्युदास होता तो कोई उचित सम्बन्ध न होगा, क्योंकि पर्यदास में यह कहना पडेगा : 'दर्शपूर्णमास में आज्यभाग होते हैं, सोमयज्ञ में नहीं, जो कि अनर्गल है। अत: 'न तो पशौ करोति न सोमे' नामक शब्दों में अर्थवाद है। शुद्ध प्रतिषेध तभी होता है जबकि पहले व्यवस्था हो और बाद को वर्जन हो। इस विषय में एक प्रसिद्ध उदाहरण षोडशी (षोडशिन्) पात्र का है। समान रूप से प्रामाणिक दो वैदिक वाक्य हैं-"वह अतिरात्र में 'षोडशी' पात्र ग्रहण ४४. चक्षुषी वा एते यशस्य यदाज्यभागौ यजति चक्षुषी एव तद्यज्ञस्य प्रतिदधाति । ते० सं० (२।६।२१)। ४५. शिष्ट्वा तु प्रतिषेधः स्यात् । पू० मी० सू० (१०८।६) । शबर ने व्याख्या की है: 'यथा नातिराने गृह्णाति षोडशिनमिति । न तत्र शक्यं वक्तुं पर्युदास इति । सम्बन्ध एव हि न स्यात् । अतिरात्रजिताति रात्रे गृह णाति षोडशिनमिति । नापिकस्य चिदर्थवादत्वेन सम्भवति । ... यत्र पुनरन्या वचनव्यक्तिरस्ति वाक्यस्य तत्र न विकल्पो भवति । एवमेषोऽष्टदोषोऽपि यबीहियववाक्ययोः । विकल्प आश्रितस्तत्र गतिरन्या न विद्यते । व्रीहिशास्त्रप्रवृत्तौ हि यवशास्त्रेण कृष्यते । श्रोता तत्र प्रवृत्तोपि व्रीहिशास्त्रेण कृष्यते। तन्त्रवातिक (१।३।३ पर, पृ० १७५))। और देखिए प्राप्तिपूर्वो हि प्रतिषेधो भवति। शबर (पू० मी० सू०७-३। २० एवं ॥३२२३ पर)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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