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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
लिया गया है न कि केवल अर्थवाद के रूप में। एक अन्य दृष्टान्त रात्रिसत्रों (सोमयज्ञ, जो सम्पादन में १२ दिनों से अधिक समय लेते हैं) से सम्बन्धित है । रात्रिसत्रों के संदर्भ में एक वचन यों है-'जो लोग रात्रिसत्र करते हैं वे स्थैर्य (प्रसिद्धि, नाम) प्राप्त करते हैं, उन्हें ब्रह्म-तेज प्राप्त होता है और वे भोजन प्राप्त करते हैं।' यह रात्रिसत्रों के सम्पादन की केवल प्रशंसा या स्तुति (अर्थवाद) की भाँति लगता है, किन्तु वास्तव में यह विधि है जो उपर्यक्त वचन में वर्णित रात्रिसत्र के फल से सम्बन्धित है और नियम के अपवाद को व्यक्त करती है कि यदि वैदिक वचनों का कोई फल उल्लिखित न हो तो किसी कृत्य का फल स्वर्ग होता है । यही बात मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२२६) में प्रयुक्त हुई है जहाँ ऐसा आया है कि अज्ञान में किया गया पाप प्रायश्चित्तों से दूर हो जाता है। सामान्यत: पापमय कर्म का नाश ईश्वर द्वारा दिये गये दण्ड द्वारा ही होता है, किन्तु याज्ञवल्क्य ने एक विशिष्ट नियम दे दिया है । मेधातिथि ने मनु० (५४०, जहाँ यह आया है कि पशु-पक्षी एवं औषधियाँ जो यज्ञों में अर्पित होती हैं, उच्च गति पर पहुंच जाती हैं) की बात कहकर यह घोषित किया है कि यह मात्र अर्थवाद है और रात्रिसत्र के दृष्टान्त द्वारा इससे कोई विधि नहीं कल्पित की जा सकती । देखिए परा० माध० (११, पृ० १४६) जहाँ ऐसा आया है कि स्थिरता (प्रसिद्धि) की इच्छा रखने वाले के लिए रात्रिसत्र के विषय में दिये हुए वचन से अधिकारविधि की बात कल्पित कर ली गयी है। एकादशीतत्त्व में रघुनन्दन ने पू० मी० सू० (४१३३१७-१६) की व्याख्या की है और इस न्याय का दृष्टान्त दिया है।
वेदों का अनुसरण करके स्मृतियों ने भी कतिपय विधियों की व्यवस्था की है और क्रियाओं को विधि लिंग में या 'यत्', तव्यत्' आदि के साथ रख कर विधि-रूप प्रदर्शित किये हैं। उदाहरणार्थ, मनु (४॥ २५, 'अग्निहोत्रं च जुहुयात' एवं १११५३ 'चरितव्यमतोः) ने दो ढंग के दृष्टान्त दिये हैं। कई दृष्टिकोणों से विधि कई प्रकार से विभाजित की गयी है। एक विभाजन में चार कोटियां हैं, यथा-उत्पत्तिविधि (मौलिक नियम या आदेश या विधि) विनियोगविधि (प्रयोग में लायी जाने वाली), प्रयोगविधि (सम्पादन) एवं अधिकारविधि (नियोज्यता) । उत्पत्तिविधि वह है जो सामान्य तथा कृत्य के रूप को दर्शाती है, यथा-'अग्निहोत्रं जुहोति' (वह अग्निहोत्र आहुति देता है) में विनियोगविधि वह है जो किसी गौण अथवा सहकारी विषय को मुख्य कृत्य से सम्बद्ध कर देती है, यथा-'दघ्नाजुहोति' (वह दही के साथ आहुति देता है) में और इसका वर्णन पू० मी० सू० के तीसरे अध्याय में हुआ है। प्रयोगविधि वह है जो किसी कृत्य के विभिन्न अंशों के क्रम को निर्धारित करती है और शीव्रता हो तथा देरी न हो, इसका निर्देश करती है, यद्यपि बहुधा. यह स्पष्ट रूप से कही नहीं जाती प्रत्युत उपलक्षित मात्र होती है । इसका वर्णन पू० मी० सू० के चौथे एवं पाँचवें अध्याय में हुआ है । अधिकारविधि (अर्हता या योग्यता) वह है जो किसी कर्म के फल के स्वामित्व की ओर संकेत करती है, यथा-'स्वर्गकामो यजेत' (जो स्वर्ग की इच्छा रखता है उसे याग करना चाहिए) और वह पू० मी० सू० के ६ठे अध्याय का विषय है।
.. २६. मी० न्या० प्र० में अधोलिखित परिभाषाएं दी हुई हैं : 'तत्सिद्धं विधिः प्रयोजनकन्तमप्राप्ता विषत्ते। तत्र कर्मस्वरूपमात्रबोधको विधिवत्पत्तिविषिः, यथा-अग्निहोत्रं जुहोतीति । अंगप्रधानसम्बन्धबोषको विषिविनियोगविधिः, यथा-पना जुहोतीति ।... प्रयोगप्राशुभावबोधको विधिः प्रयोगविधिः। स चङ्गिवाक्यकतामापत्रः प्रधानविधिरेव।... फलस्वाम्मबोषको विधिरषिकारविधिः । फलस्वाम्यं च कर्मजन्यफलभोक्तृत्वम् । स च यजेत
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