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धर्मशास्त्र का इतिहास का आदेश है, जहाँ अर्थ यह है कि 'दही द्वारा आहुति दी जानी चाहिए ।' देखिए टुप्टीका (पू० मी० सू० ६।३।१७) एवं एम० एन० पी० पु. १७, भण्डारकर ओरिएण्टल रीसर्च इंस्टीट्यूट संस्करण २३ ।
विधि-विचार वैदिक वचनों में विधियों का संचयन वेद का सार है और वह कई विशिष्ट कृत्यों की ओर निर्देश करता है । विधि में केन्द्रीय तत्त्व है क्रिया या क्रियात्मक रूप, जिसकी व्याख्या हम आगे करेंगे। प्रश्न यह है कोई किसी विधि को पहचाने कैसे ? शबर ने एक श्लोक उद्धृत किया है जिसे वे लोग जो शब्दों एवं वाक्यों के अर्थों को जानते हैं, परम्परापूर्वक उद्घोषित करते हैं, यथा-सभी वेदों में विधि के स्थिर एवं निश्चिा चिह्न होते हैं कुछ शब्द, यथा-'इसे व्यक्ति अवश्य करेगा', 'इसे करना चाहिए', 'इसे अवश्य करना चाहिए, 'ऐसा होना चाहिए' । 'इसे ऐसा होना चाहिए'२४ । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि विधि सामान्यत: विधि लिङ द्वारा प्रकट की जाती है, तथा वर्तमान काल में कोई क्रिया सामान्य रूप से विधि नहीं प्रदर्शित करती। किन्तु कभी-कभी किसी वचन से वर्तमानकाल में भी विधि की झलक मिल जाती है। उदाहरणार्थ, महापितृपक्ष में एक वैदिक वचन आया है-'पितृयज्ञ में चमस के दण्ड (डाँडी) के नीचे समिधा रखकर अनुसरण करना चाहिए, देवों के लिए कृत्य करने वाला दण्ड के ऊपर समिधा रखता है। इसे विधि के रूप में
२३. यत्र तु कर्म प्रकारान्तरेण प्राप्तं तत्र तदुद्देशेन गुणमात्रविधानम् । यथा 'वघ्ना जुहुयात्' इत्यत्र होमस्य 'अग्निहोत्रं जुहुयात् । इत्यनेन प्राप्तत्वात् होमीद्देशेन दधिमात्रविधानम्, बध्ना होमं भावयेत् इति । मो० न्या० प्र० (पृ० १७)।
२४. एवंहि पदवाक्यार्थन्यायविदः श्लोकमामनन्ति । कुर्यात् क्रियेत कर्तव्यं भवेत्स्यादिति पञ्चमम् । एतत्स्यात्सर्ववेदेषु नियतं विधिलक्षणम् ॥ शबर (पू० मी० सू० ४॥३॥३)।
२५. विष्टगताग्निहोत्रे महापितृयज्ञे वा धूयते । अधस्तात्समिषं धारयन्ननुद्रवेदुपरि हि देवेभ्योधारयति । पू० मी० सू० (३॥४॥६) पर तन्त्रवार्तिक द्वारा उद्धत (शबर गत पांच सूत्रों के साथ इसे भी छोड़ दिया है); तदुपरान्त आगे आया है, 'मित्र्ये होमेऽधस्तात् उग्दण्डस्य समिद्धारयितव्या।' दैवे च पुनरुपरिष्टादिति । विषित्वे चवमादीनामुक्तः कल्पनाप्रकारः । तस्माद्विधिरिति ॥' ५० ८६ । यह द्रष्टव्य है कि स्मृतिचन्द्रिका (१, पु०७२-७३) ने इस पैविक वचन का उल्लेख किया है, उसने मामा की पुत्री से विवाह के या अपने चाचा की पुत्री से विवाह के औचित्य के विषय में अपने विवेचन में शतपथ (१८३१६) को उद्धृत करते हुए भी इसे उद्धत किया है। शतपथ का वचन यों है : 'तत्सात्समानादेव पुरुषादत्ता चाद्यश्च जायते इवं हि चतुर्थ पुरुषे तृतीय संगच्छामहे इति विरवं दीव्यमाना जात्या आसते' (जहाँ क्रियाएँ वर्तमान काल में हों और विधि लिंग में न हो, तब भी स्मृतिचन्द्रिका का कथन है कि यह केवल अनुवाद नहीं है, किन्तु इससे विधि का निर्माण हो जाता है) । और देखिए परा० माष० (११२, पृ० ६६-६७) जहाँ ऐसा ही वक्तव्य दिया गया है। ऐसा नियम-सा था कि 'हिं (जो कारण की ओर संकेत करता है) या 'वै' (उसकी ओर संकेत करता है जो भलीभांति ज्ञात है) ऐसे शब्दों का प्रयोग सामान्यतः किसी विधि में प्रयुक्त नहीं होते । देखिए शबर (पू० मौ० सू० ३३१४१): 'नच विवीयमाने वैशम्दो भवति प्रसिद्धवचनो ह्येष दृष्टः, न स्त्रंणानि सस्यानि सन्ति-इति यथा ।' म आदि ० (१०६५।१५) में भी आया है।
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