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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
१३ कभी-कभी वेद को तीन भागों में बांटा जाता है, यथा-विधि, अर्थवाद एवं मन्त्र, उद्भिद एवं विश्वजित् के समान यागों के नाम विधि के अन्तर्गत रखे गये हैं। श्लोकवार्तिक ने अपने अन्तिम दलोक में इस विधा विभाजन की ओर संकेत किया है। धर्म क्या है, अर्थात् क्या करना चाहिए तथा क्या नहीं करना चाहिए, इसके विषय में यद्यपि वेद ही उचित ज्ञान का साधन माना गया है, किन्तु वेद के विभिन्न भाग धर्म के उचित ज्ञान से जीवे ढंग से नहीं सम्बन्धित हैं। वेद का अधिकांश मुख्य भाग से मध्यस्थ भाव से ही सम्बन्धित है । एक स्थान पर शबर ने बड़े संक्षिप्त किन्तु स्पष्ट ढंग से वैदिक वचनों की तीन कोटियों की परिभाषा की है और दृष्टान्त दे कर समझाया है। वेद को पांच भागों में भी बाँटा गया है, यथा-विधि, अर्थवाव, मन्त्र, नामधेय एवं प्रतिषेध । इन पाँचों के विषय में ऊपर उल्लेख हो चुका है। यहाँ पर इनके विषय में कुछ विस्तार से कहा जायगा । विधि एक ऐसा आदेश है जो अर्थवान् है, क्योंकि इसके साथ एक विषय संयुज्य रहता है जिसका (उपयोगी) उद्देश्य होता है और विधि ऐसी वस्तु की व्यवस्था करती है जो किसी अन्य प्रमाण से स्थापित नहीं होती। स्वयं शबर ने विधि के अर्थ के विषय में कई स्थलों पर वर्णन किया है। उदाहरणार्थ, 'स्वर्ग की इच्छा रखने वाले को अग्निहोत्र करना चाहिए' नामक आदेश में होम करने की व्यवस्था है जो किसी अन्य आदेश (शासन) द्वारा व्यवस्थित नहीं है और उसका लाभकर उद्देश्य है । इसका अर्थ है कि अग्निहोत्र द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति करनी चाहिए। किन्तु जहाँ कोई कृत्य दूसरे प्रकार से स्थापित होता है, वैसी स्थिति में उसके साथ कोई सहायक आदेश लगा दिया जाता है। इस प्रकार 'दही के साथ आहति दी जानी चाहिए' नामक वाक्य में होम की व्यवस्था ‘स्वर्ग की इच्छा करने वाले को अग्निहोत्र करना चाहिए' नामक शब्दों में पहले से हो चुकी रहती है तो वैसी स्थिति में केवल उसके संदर्भ में दही की आहुति देने
२१. इति प्रमाणत्वमिदं प्रसिद्धं युक्त्येह धर्म प्रति चोदनायाः । अतः परं तु प्रविभज्य वेदं त्रेधा ततो वक्ष्यति यस्य योर्थः । मीमांसा बालप्रकाश (शंकरभट्ट कृत) द्वारा उद्धृत (पृ. ७); इस पर न्यायरत्नाकर में आया है, 'तेन सिद्धपि चोदनाप्रामाण्ये ततः परं विध्यर्थवादमन्त्रात्मना वेदं त्रेधा विभज्यतत्स्तुत्यादिप्रयोजनप्रतिपादनेन कृत्स्नस्य वेदस्य तन्मूलयोश्च स्मृत्याचारयोर्धर्मम् प्रति प्रामाण्यमुपरितने पादत्रये प्रतिपादयिष्यत इति समस्तोध्यायः प्रमाणलक्षणं, नैवेह समाप्तमिति ।' पूर्वपक्षसूत्र 'उक्त् समाम्नायंदमयं तस्मात् सर्वं तदर्थ स्यात्' (पू० मी० सू० १२४१) पर शबर का कथन है : 'कश्चिदस्य (वेदस्य) भागोविधिर्योऽविदितमथं वेदयति, यथा सोमेन यजेतेति । कश्चिदर्थवादो यः प्ररोचयन् विधि स्तौति यथा वायुर्वे क्षेपिष्ठा देवता इति । कश्चिन्मन्त्रो यो विहितमर्थ प्रयोगकाले प्रकाशयति यथा बहिदेवसदनं दामि-इत्येवमादिः । अयं अर्थः यस्य सः इदमर्थः तस्य भावः ऐदमथ्यम् । समाम्नाय का अर्थ है वेद । 'उक्त' पू० मी० सू० ( ११२।१ ) की ओर संकेत करता है ( अम्नायस्य क्रियार्थत्वात ...)।
२२. शास्त्रदीपिका ने पू० मी० स० (१।४।१)पर कहा है : 'तत्र चोदनव साक्षात्प्रमाणम् । अर्थवादमन्त्रस्मतिनामधेयानि तच्छेषत्वेन तन्मूलत्वेन च प्रमाणं भवन्तीति धर्मप्रमितेरिति कर्तव्यतास्थाने नियतंनिपतन्ति ।' (पृ० ५४)। यह बात कि विधि का अर्थ है 'वह जो पहले से या किसी अन्य स्रोत से न ज्ञात हो पूर्वपक्षसूत्र (१।२।२६) से प्रकट होती है । 'अविदितवेदनं च विधिरित्युच्यते'; अज्ञातस्य हि ज्ञापनं विधिः । शबर (१०।३।२०); १।४।८ पर यों कहा गया है : 'यद्यज्ञातस्ततो विधिः यदि ज्ञातस्ततोनुवादः ।...न ह्याख्यातमन्तरेण कृत्यं वा नामशब्दार्थ व्यापरो विधीयते ।'
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