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________________ (३२८ धर्मशास्त्र का इतिहास वेद स्वयंभू है और इसका प्रणयन किसी मानव या दिव्य शक्ति द्वारा नहीं हुआ है, इसका कोई भी भाग स्पष्ट रूप से अमोघ हो जाता है अर्थात प्रामाणिकता में अस्खलनशील हो जाता है। वेद धर्म की जानकारी का एक मात्र साधन है, अत: मीमांसकों को यह मान्य हो गया कि जो कछ वेद कहता है वह प्रामाणिक है। किन्तु बहत-से वैदिक वचन एक-दूसरे के विरोध में पड़ जाते हैं और सामान्य अनुभव के विपरीत पड़ जाते हैं । इन कठिनाइयों को स्पष्ट करने के लिए कुछ विस्मयावह उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं । तै० सं० (५।२७) एवं मैत्रायणी सं० में आया है कि खाली पथिवी. आकाश एवं अ अग्नि-वेदिका नहीं बनानी चाहिए। आकाश या अन्तरिक्ष में कोई भी वेदिका नहीं बना सकता. जो असम्भव है उसे वेद अमान्य ठहराता है, अत: यह निषेध प्रथम दष्टि में अर्थहीन-सा लगता है। तै० १०१५) में आया है कि पुर्णाहति देने से यजमान सभी वाञ्छित वस्तएँ प्राप्त करता है। यदि सभी वस्तुएँ प्रदान कर देती है तो अग्निहोत्र आदि की क्रियाएँ करने से क्या लाभ ? क्या वेद ऐसा समझता है? वेद में व्यक्तियों के विषय में आख्यान एवं अनश्रतियां पायी जाती हैं. यथा-तै० सं० ने बबर प्रावाहणि का उल्लेख किया है, जो एक प्रभावशाली ववता बनना चाहता था और उसकी इच्छा की पूर्ति के लिए उसने पञ्चरात्र नामक यज्ञ किया और अपनी वाञ्छित बात प्राप्त भी की। अत: इस बबर के उपरान्त वेद की रचना मानी जायगी और इस प्रकार वेद का नित्यत्व समाप्त हो जायगा । अत: शबर का कहना है कि वह कथा जो कमी घटित नहीं हुई थी, केवल स्तुति या प्रशंसा के लिए कह दी गयी है । इस प्रकार का कथन इस बात का द्योतक है कि यह मात्र एक बहाना है, वास्तव में इस प्रकार की व्याख्या वेद के यहाँ पर एक ऐसी गाथा कही गयी है जो कभी घटी नहीं और वह भी वेद के किसी आदेश को बढ़ावा देने के लिए। यदि लोग यह जान लें कि यह गाथा असत्य है (जैसा कि शबर ने व्याख्या की है) तो वे उस कृत्य को सम्पादित न करना चाहेंगे। इस विषय में एक सच्ची कथा अधिक उपयुक्त होती। तन्त्रवार्तिक ने शबर की व्याख्या से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने का प्रयास किया है। १६. शब्दप्रमाणका वयं यच्छन्द आह तदस्माकं प्रमाणम् । शबर (पू० मी० सू० ३।२।३६) । वार्तिक ६ (प्रथम आह्निक) पर महाभाष्य में भी ये ही शब्द आये हैं। २०. न पृथिव्यामग्निश्चेतव्यो नत्तिरिक्ष न दिवि-इत्याहुः। अमृतं वहिरण्यममृते वा एतदग्निश्चीयते । मै० सं० (३।२।६) । देखिए पू० मी० सू० (१२२१५ एवं १८) एवं व्यवहारमयूख (पृ० २०२, जो कहता है कि यह 'निषेधानुवादमात्रम्' है) । इसका जो तात्पर्य है वह यह है कि जिस प्रकार वायु या आकाश में अग्निचयन कभी नहीं देखा गया है उसी प्रकार खाली पृथिवी पर भी वह अज्ञात है और इसका सम्पादन पृथिवी पर सोने का एक खण्ड रख कर होना चाहिए। यह सोने की स्तुति (प्रशंसा) मात्र है। कात्यायनश्रौतसूत्र (४।१०।५) को टीका द्वारा पूर्णाहुति की व्याख्या है : 'पूर्णया चा आहुति' । बबर प्रावााहणिरकामयत वाचः प्रवदिता स्यामिति स एतं पञ्चरात्रमाहरत् तेनायजत ततो वै स वाचः प्रवदिताऽभवत् । य एवं विद्वान् पञ्चरात्रेणयजतेप्रवदितैव वाचो भवत्यथो एनं वाचस्पतिरित्याहुः । ते ० सं० (७।१।१०।२-३) । प्रावाहणि का अर्थ है 'प्रवाहण का पुत्र' । देखिए पू० मी० सू० (१।२।६ एवं १८)। शबर ने टीका को है : असद्वृत्तान्तान्वाख्यानं स्तुत्यर्थेन प्रशंसाया गम्यमानत्वात्' (११२।१०), जिसपर तन्त्रवातिक की टिप्पणी है : एवं वेदेपिविधिना तावत्फलमवगमितमर्थवादास्त्वसत्येननामप्ररोचयन्तु न तद्गते, सत्यासत्यत्वे किंचित् दूषयतः प्रवर्तनमात्रोपकारित्वात् । तस्मादुपाख्यानासत्यत्वमतन्त्रम् ।' तन्त्रवा० (१०२१०)। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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