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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
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ने छात्रों को ब्राह्मण-भाग की जानकारी प्रदान करने के लिए कुछ ऐसी विशेषताएँ प्रदर्शित की हैं जो ब्राह्मणभाग में पायी जाती हैं, यथा वे अंश जिनमें 'इति' या 'इत्वाह' कथा वार्ता, किसी आदेश के कारण, व्युत्पत्ति, भर्त्सना, प्रशंसा, आशंका, आदेश, उदाहरण (जहाँ किसी अन्य ने वही कार्य किया है ), पूर्व युगों में हुई घटनाएँ, मूल को देखकर ( उस पर विचार करने के उपरान्त) अर्थ में परिवर्तन करना आदि आये रहते हैं। शबर ने दो ऐसे श्लोक उद्धृत किये हैं जिनमें ब्राह्मण- वचनों की विशेषताओं को दस शीर्षकों में रखा गया है और उन्होंने यह प्रदर्शित किया है कि यह सब केवल दृष्टान्त-सम्बन्धी हैं और वृत्तिकार द्वारा उल्लिखित विशेषताएँ मन्त्रों में भी पायी जाती हैं, यथा 'इति' (ऋऋ० १०।११६१), 'इत्याह' (ऋ० ७१४१ ॥ २), 'आख्यायिका' (ऋ० १।११६।३), 'हेतु' अर्थात् कारण ( |२| ४ ) । केवल ऋग्वेद में १० सहस्र से अधिक मन्त्र पाये जाते हैं। सभी वैदिक कृत्यों में एक-तिहाई से अधिक प्रयोग में नहीं लाये जाते । शेष का प्रयोग जप में होता है । इसके अतिरिक्त अन्य वेदों के भी सहस्रों मन्त्र हैं । अतः मन्त्र की कोई औपचारिक परिभाषा नहीं की जाती है और केवल इतना ही कहना पर्याप्त माना जाता है कि मन्त्र वे हैं जो उस रूप में विद्वानों द्वारा मान्य ठहराये गये हैं।
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इन मन्त्रों के
प्रत्येक वेद के साथ ब्राह्मणों का संयोजन हुआ है, यथा-- ऐतरेय एवं कौषीतकि ब्राह्मण ऋग्वेद के हैं, तैत्तिरीय कृष्ण यजुर्वेद का है, शतपथ शुक्ल यजुर्वेद का है, ताण्ड्य सामवेद का तथा गोपथ यजुर्वेद का है । ब्राह्मणों में भारोपीय भाषाओं के सबसे प्राचीन ज्ञात गद्य के रूप में पाये जाते हैं, यद्यपि गद्य के सूत्र (नियम ), जो सम्भवत: ब्राह्मणों के गद्यों से प्राचीन हैं, कृष्ण एवं शुक्ल यजुर्वेद संहिताओं में पाये जाते हैं । यज्ञों, धार्मिक कृत्यों एवं पुरोहितों के विषय में जानकारी देने में वे प्रमुख उपकरण माने जाते हैं । उनमें धार्मिक कृत्यों एवं यज्ञों को बताने के लिए बहुत-सी कथा-वार्ताएँ, किंवदन्तियाँ आदि पायी जाती हैं। उनमें देवों एवं असुरों के युद्धों का उल्लेख है और उनमें शब्द व्युत्पत्तियाँ पायी जाती हैं । उनके विषयों को हम दो कोटियों में विभाजित कर सकते हैं, यथा-विधियां (ऐसे वचन जो आदेशयुक्त एवं उपदेशात्मक हैं) एवं अर्थवाद ( व्याख्यात्मक वचन ) । अर्थवादों के विषय क्षेत्र एवं उद्देश्य के विषय में आगे लिखा जायगा । किन्तु एक बात द्रष्टव्य है कि मीमांसक लोग यह कभी भी स्वीकार नहीं करते कि वेद का कोई भी अंश यहाँ तक कि अल्प से अल्प अंश भी, व्यर्थ या निरर्थक है ।
अब हमें यह देखना है कि मीमांसक लोग किस प्रकार वेद की बातों पर विचार करते हैं। आज का विद्यमान वैदिक साहित्य अति विशाल एवं विभिन्न प्रकार का है। जब एक बार यह मान्य हो जाता है कि
१७. हेतुनिर्वचनं निन्दा प्रशंसा संशयो विधिः । परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारणकल्पना । उपमानं दर्शते तु विषयो ब्राह्मणस्य तु । एतत् स्यात् सर्ववेवेषु नियतं विधिलक्षणम् || शबर द्वारा २।१।३३ पर उद्धृत । तन्त्रवार्तिक ने व्याख्या की है कि यहाँ पर विधिलक्षण में 'विधि' शब्द का अर्थ है ब्राह्मण। 'व्यवधारणकल्पना' के विषय में इसका कथन है, 'यत्रान्यथार्थः प्रतिभातः पौर्वापर्यालोचनेन व्यवधायं अन्यथा कल्प्यते सा व्यवधारणकल्पना तद्यथा प्रतिगृह्णीयादिति श्रुतं प्रतिग्राह्येदिति कल्पयिष्यते । 'परकृति' एवं पुराकल्पः के विषय में कथन यों है : 'एकपुरुषकर्तृकमुपाख्यानं परकृतिः बहुकतृक पुराकल्प:' । ब्रह्माण्डपुराण (२।३४।६३-६४ ) ने व्याख्या की है : 'अन्यस्यान्यस्य क्तिर्या बुधैः सोता पुराकृतिः । यो त्यन्तपरोक्षार्थः स पुराकल्प उच्यते ॥' १८. स्वाध्याय पठ्यमानेषु येषु वार्तिक ( पृ० मी० सू०, २।१।३४) ।
मग्नपदं स्मृतम् । ते मन्त्रा नाभिधानं हि मन्त्राणां लक्षणं स्थितम् ॥ तन्त्र
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