________________
धर्मशास्त्र का इतिहास
एवं
६ । २ । १-२ ) में ऐसा स्थापित है कि मन्त्र- वचन १४ 'साम' नहीं कहे इस नाम से पुकारे जाते हैं, वह गीति क्रिया है जो गायक द्वारा भीतरी अभिव्यक्त होती है और संगीतमय प्रभाव उत्पन्न करने के लिए गायक को करना पड़ता है, उनमें कुछ भागों को इधर-उधर करना होता है, छोड़ देना होता है, बार-बार दुहराना होता है या कहीं-कहीं उनमें रोक लगानी पड़ती है और स्तोम १५ देना होता है । ७।२।१-२१ में पू० मी० सू० ने यह स्थापित किया है कि 'रथन्तर साम' एवं 'बृहत्साम' शब्द केवल गीति की ओर निर्देश करते हैं, वे ऋचा या उस मूल वचन की ओर जो संगीतमय बना दिया गया है कोई संकेत नहीं करते । 'यजुः' वे मन्त्र हैं जो न तो 'ऋक्' हैं और न 'साम'। एक अन्य शब्द है 'निगद' जो कुछ ऐसे मन्त्रों के लिए प्रयुक्त होता है जो निर्देश रूप में अन्य लोगों को सम्बोधित हैं, यथा-- अग्नीदग्नीन् विहर', 'प्रोक्षणीरासादय', 'इध्माबहिरूपसादय', और जो उच्च स्वर से कहे जाते हैं। ये 'यजु: ( अर्थात् गद्य में) हैं, केवल एक अन्तर यह है कि वे उच्च स्वर से कहे जाते हैं (अतः जिनसे कहा जा रहा है वे सुन सकें) 1 किन्तु अन्य सामान्य ‘यजु:' धीरे कहे जाते हैं। देखिए पू० मी० सू० (२२१ । ३८-४५) जहाँ निगदों पर विवेचन है और मैत्रायणीसंहिता ( ३।६।५ ) जहाँ 'उच्चैर्ऋचा क्रियत उच्चैः सामोपांशु यजुषा' आया है ।
मन्त्र एवं ब्राह्मण मिल कर वेद कहे जाते हैं । पू० मी० सू० (२|१|३३ ) में आया है कि वेद के से अंश जो मन्त्र नहीं हैं और न मन्त्र कहे जा सकते हैं, ब्राह्मण हैं। शबर ने टिप्पणी की है कि वृत्तिकार
११०
पू० मी० सू० ( ७।१२।१- २१ जाते, किन्तु केवल गीति वाले प्रयत्न से विभिन्न स्वरों के रूप में ऋचा के अक्षरों को परिष्कृत
नूतनत (ऋ० १।१।२) में भाव (अर्थ) प्रथम पाद में पूर्ण नहीं हो सका है । अतः परिभाषा केवल 'पादव्यवस्था' है तथा 'अर्धवशेन' केवल वाष्टतिक है, जैसा कि शबर ने कहा है : 'यतो नार्थं वशेनेति वृत्तादिवशव्यावृत्यर्थं, कि सहि अनुवाद एष प्रदर्शनार्थः । ... तस्माद्यत्र पादकृता व्यवस्था सा ऋगिति ।'
१४. तस्माद्गीतयः सामानि न प्रगीतानि मन्त्रवाक्यानि । शबर ( पू० मी० सू० ६।२।२ ) ; सामवेदे सहस्रं गीत्युपायाः ।... गीतिर्नाम क्रिया । सा आम्यान्तरप्रयत्नजनितस्वरविशेषाणामभिव्यञ्जिका । सा सामशब्दाभिलप्या । सा नियतपरिमाणा । ऋचि च गीयते । शबर (पू० मो० सू० ६।२।२६ ) । 'सर्वे देशान्तरे' वार्तिक पर प्रथम आन्हिक में महाभाध्य का कथन है: चत्वारो वेदाः सांगणः सरहस्या बहुधा विभिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्रवर्त्या सामवेद एकविंशतिघा बाहवृच्यं नवधाथर्वणो वेद । यहाँ पर सामवेद के लिए 'शाखा' नहीं प्रयुक्त हुआ है प्रत्युत 'वर्त्मन् ' ( ढंग) शब्द का प्रयोग हुआ है । जैसा कि शबर ने स्पष्ट कहा है कि सामवेद में एक सहस्र गीत्युपाय हैं, अतः सहस्रवर्मा का अर्थ है 'सहस्रगीत्युपायवान्' और 'सहस्रवम' को 'सहस्रशाखः' कहना ठीक नहीं है, जैसा कि बहुत से विद्वानों ने किया है। विष्णुपुराण (३।६) ने सामवेद के पाठान्तरों का भ्रामक विवरण उपस्थित किया है, श्लोक ३ एवं ६ में क्रम से १००० संहिताओं (सुकर्मा द्वारा उद्भावित ) एवं २४ संहिताओं (हिरण्यनाभ के शिष्य द्वारा उद्भावित ) का उल्लेख है ।
१५. गानों में जो ऊपर से जोड़ा जाता है उसे स्तोभ कहते हैं, यथा हाउ, हाइ, ई, ऊ, हुम् आदि । देखिए छान्दोग्योपनिषद् (१।१३११-३) जहाँ 'हम्' को १३ वाँ स्तोभ कहा गया है ( उसे परम ब्रह्म भी कह दिया गया है) और अन्य १२ स्तोभों का उल्लेख किया गया है, यथा-हाउ, हाइ, ऊ० आदि । देखिए जै० (६२३६, अधिकं च विवर्णं च जैमिनः स्तोभशब्दवात्) ।
१६. शेषे ब्राह्मणशब्दः । पू० मी० सू० (२1१1३३); 'मन्त्राश्च ब्राह्मणं च वेदः । तत्र मन्त्रलक्षण उक्ते परिशेषसिद्धत्वात् ब्राह्मणलक्षणमवचनीयं मन्त्रलक्षणवचनेनैव सिद्धम् । शबर |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org