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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त १२६ यह स्थापित करने के उपरान्त कि वेद नित्य और स्वयंम्भू है, मीमांसकों ने अपने वैदग्ध्य, तर्क-शक्ति एवं युक्ति का खुलकर किया है । उनका अपना एक विशेष तर्क है जिसके द्वारा वे न केवल वेद-वचनों की व्याख्या करते हैं प्रत्युत वे स्मृतियों एवं धर्मशास्त्र - सम्बन्धी मध्यकालीन ग्रन्थों (जिनमें व्यवहार अथवा कानून, विधि आदि सम्मिलित हैं) का निरूपण उपस्थित करते हैं। जैसा कि कोलब्रुक ने, जो कि अत्यन्त सम्यक् एवं उचित विचार रखने वाले पाश्चात्य संस्कृत विद्वानों में परिगणित होते हैं, आज से १४० वर्ष पूर्व कहा है कि मीमांसा पर जो विमर्श हुए हैं वे व्यावहारिक (कानूनी ) प्रश्नों से सादृश्य रखते हैं, और वास्तव में हिन्दू कानून (व्यवहार) लोगों के धर्म से सना हुआ है, उसी प्रकार का तर्क सब बातों में प्रयुक्त होता है। मीमांसा का तर्क कानून ( व्यवहार) का तर्क है; वह लौकिक एवं धार्मिक अनुशासनों (अध्यादेशों) की व्याख्या का नियम है । प्रत्येक विषय की जाँच होती है और वह निश्चित की जाती है और इस प्रकार के निर्णीत विषयों से ही सिद्धान्त एकत्र किये जाते हैं । उन सबका सुव्यवस्थित ढंग व्यवहार (कानून) का दर्शन है, और इसी का सचमुच, मीमांसा में प्रयास किया गया है (फुटकर निबन्ध, जिल्द १, पृ० ३१६-३१७, मद्रास, १८३७ ई० ) । वैदिक सामग्री का प्रथम विभाजन मन्त्र एवं ब्राह्मण रूप में है । हमने यह पहले ही देख लिया है कि वे ही मन्त्र कहे जाते हैं जो उस रूप में विद्वानों द्वारा स्वीकृत हैं। पू० मी० सू० (२।१।३१-३२ ) में व्यवस्था है कि मन्त्र वह है जो केवल दृढ़ता पूर्वक कहता है ( उत्साह देने वाला नहीं है) या ( वही बात दूसरे ढंग से) 'वे मन्त्र हैं जो उस नाम से इसलिए पुकारे जाते हैं क्योंकि वे कुछ दृढ़तापूर्वक कहते हैं । शबर ( पू० मी० सू० १ । ४ । १ ) ने कहा है कि मन्त्र वह है जो यज्ञ की विधि के समय यजमान को व्यवस्थित बात का स्मरण दिलाता है या उसे स्पष्ट करता है, यथा- 'मैं कुश घास ( को अग्र भाग ) काटता हूँ जहाँ देवता का निवास है । यह मन्त्र का एक सामान्य वर्णन हुआ, न कि उसकी सम्यक् परिभाषा । केवल यज्ञों में उच्चारण से ही मन्त्र उपयोगी नहीं होते, प्रत्युत वास्तव में वे अभिधायक होते हैं (अर्थात् क्या किया जाना चाहिए या क्या किया जा रहा है उसको स्मरण दिलाने वाले ) । शबर की टिप्पणी है कि केवल लक्षण से ही मन्त्रों की अभिज्ञता होती है न कि मन्त्रों की कुछ विशेषताओं के वर्णन से, जैसा कि वृत्तिकार ने किया यथा -- कुछ लोउ 'असि' ( तू है) से अन्त करते हैं या 'त्या' से जैसा कि तै० सं० (१|१|१) के 'इषे त्वा' में है, प्रार्थना या आकांक्षा से ( यथा त० सं० १।६।६।१ में 'आयुर्धा असि ) या प्रशंसा से (अग्निर्मूर्धा दिवः, तै० सं० ४ ४ | ४ ) | शबर ने दर्शाया है कि 'असि' एवं 'त्वा' मन्त्रों के मध्य में भी पाये जाते हैं, अन्य विशेषताएँ, यथा-- आशीर्वचन एवं प्रशंसा ब्राह्मणों में भी पायी जाती हैं। मीमांसा - बाल - प्रकाश में आया है कि मन्त्रों के एक सौ प्रकार हैं और यदि हम चौदह वैदिक छन्दों एवं उनके उप-विभाजनों को भी सम्मिलित करें, केवल ऋक् मन्त्रों (ऋचाओं) की २७३ विभिन्न कोटियाँ प्राप्त हो जायेंगी ( पृ० ६६-६७ ) । कछ ऐसे वचन हैं जो मन्त्र कहे जाते हैं (यथा'वसन्ताय कपिंजलानालभते', वाज० सं० २४/२० ) जो न केवल दृढतापूर्वक कहे गये हैं प्रत्युत याग की विधि से सम्बन्धित हैं ( यथा अश्वमेध से, वाज० सं० २४।२० ) । मन्त्रों को तीन शीर्षकों में बाँटा गया है, यथा — ऋक्, साम एवं यजुः । इनकी परिभाषा पू० मी० सू० (२1१1३५-३७ ) में की हुई है । 'ऋ' नाम उन मन्त्रों के लिए प्रयुक्त है जो मात्रायुक्त पादों में (बहुधा) अर्थ के आधार पर विभाजित हैं । 'साम' उन वैदिक मन्त्रों का नाम है जो गाये जाते हैं । १३. तेषामृग्यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था । गोतिष् सामास्या । शेषे यज्ः शब्दः । पू० मी० सू० (२।१।३५३७) । 'अग्निमीले पुरोहितं ' (०१1१1१ ) में प्रथम पाद में पूर्णभाव है, किन्तु 'अग्निः पूर्वेभिऋषिभिरीड्यो १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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