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धर्मशास्त्र का इतिहास
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से सम्बन्धित हैं (देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पृ० ११२१ एवं पाद-टिप्पणी २५०४ ) । शबर एवं कुमारिल ने आत्मा के विषय में जो धारणाएँ व्यक्त की हैं उनसे पूवमीमांसा को दार्शनिक महत्व प्राप्त हो सका है। वैदिक एवं वैदिकोत्तर विवरण अथवा व्याकरण के निमित्त शबर की देनों के विषय में विशद् अध्ययन के लिए देखिए डा० एस्० वी० गर्गे का ग्रन्थ 'साइग्रेशंस इन शबर- भाष्य ( पृ० १४० २१३, पूना, १६५२ ) ।
इस सिद्धान्त से कि वेद नित्य है और सर्वोच्च प्रमाण वाला है, कतिपय अवाञ्छित प्रवृत्तियाँ उट खड़ी हुई हैं। नये सिद्धान्तों के प्रवर्तक बड़ी कठिनाई से यह सिद्ध करने का प्रयास कर बैठते हैं कि उनके सिद्धान्तों के पीछे वैदिक प्रमाण हैं । उदाहरणार्थ, वे० सू के १।१।५- १८ सूत्र यह बताते है कि उपनिषदें प्रधान को विश्व का कारण नहीं मानतीं, जैसा कि सांख्य लोग कल्पना करते हैं । शंकराचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सांस्यों ने वेदान्त वचनों को अपने सिद्धान्तों के अनुरूप व्याख्यायित कर डाला है और इसी से उनके तर्क का खण्डन उन्हें वे० सू० (१1१।५-१८) में करना पड़ा। हमने यह बहुत पहले देख लिया है कि किस प्रकार शाक्त पूजा के अनुयायियों ने ऋ० (५|४७ ४ : चत्वार इं विभ्रति आदि-आदि ) की व्याख्या अपने शावत सिद्धान्तों की पुष्टि में कर डाली है और उपनिषद् नाम से उद्घोषित करके अपने ग्रन्थों को मान्यता देने का प्रयास किया है, यथा-- भावनोपनिषद् | शबर ने अपने पू० मी० सू० के भाष्य में यह कहा है कि विज्ञानवादी बौद्धों ने अपने समर्थन में बृहदारण्यकोपनिषद् ( ४ | ५ | १३ : विज्ञानघन इवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञारित) की बातें रख दी हैं । अत्यन्त चकित करने वाले उदाहरणों में एक है आनन्दतीर्थ (जो मध्वाचार्य भी कहलाते हैं) द्वारा उपस्थापित ऋ० (१।१४१।१ - ३ ) की व्याख्या । आनन्दतीर्थ ने 'महाभारत- तात्पर्य निर्णय' में अपने को वायु का तीसरा अवतार माना है, (दो अन्य अवतार हैं, हनूमान एवं भीमसेन) और यह कहने का प्रयत्न किया है कि ऋ० (१।१४१।१-३) इन तीन अवतारों की ओर संकेत करता है । 'मध्वः' एवं 'मातरिश्वा' शब्द (जिनका अर्थ है वायु देव) ऋ० ( १।१४१।३ ) में प्रयुक्त हैं। इतना ही इस बात को कहने के लिए पर्याप्त था कि द्वैत सिद्धान्त के प्रवर्तक मध्व ऋग्वेद में उल्लिखित हैं। यदि वेद में भीमसेन (जो परम्परा से दी हुई महाभारत की तिथि के अनुसार लगभग ५००० वर्ष पूर्व हुए) का संकेत है और मध्व का ( जो लगभग ७०० वर्ष पूर्व हुए थे) उल्लेख है तो वेद नित्य कैसे कहा जायगा और स्वयं मध्वाचार्य वेद की अनित्यता के प्रत्युत्तर में क्या कहेंगे ? स्पष्ट है, वेद इन तिथियों के उपरान्त प्रणीत हुआ होगा ! यह तर्क कि यह संकेत किसी पूर्व कल्प का है, नहीं ठहर सकता, क्योंकि वह कल्प, मन्वन्तर एवं महायुग जिनमें मीम एवं मध्वाचार्य हुए तथा अर्वाचीन काल अभी एक ही हैं। द्वापर ( जिसमें भीमसेन थे) के अन्त में कोई प्रलय नहीं हुआ, प्रत्युत उसी समय कलियुग आरम्भ हो गया। महाभारत का युद्ध द्वापर एवं कलि (आदि पर्व २।१३ ) के बीच में हुआ तथा युद्ध के समय कलियुग का आरम्भ होने वाला था ( वनपर्वएतत् कलियुगे नामाचिराद्मद् प्रवर्तते, एवं शल्य० ६०।२५: प्राप्तं कलियुगं विद्धि ) । इसी प्रकार के स्वत्वप्रतिपादन के कारण अप्पय दीक्षित ऐसे प्रसिद्ध लेखकों ने उनकी भर्त्सना की है । अप्पय दीक्षित ने अभियोग लगाया है कि मध्वाचार्य ने अपने सिद्धान्त के समर्थन में कपट- रचना द्वारा वैदिक एवं अन्य वचनों का उद्धरण दिया है। देखिए इण्डियन एण्टीक्वेरी ( जिल्द ६२, पृ० १८६) जहाँ पर श्री वेंकटसुब्वियाह ने ३० से अधिक ऐसे ग्रन्थों के नाम दिये हैं, जिन्हें मध्व ने उल्लिखित किया है, किन्तु वे ग्रन्थ वास्तव में कहीं नहीं पाये जाते । म० म० चिन्नस्वामी ने, जिन्होंने अप्पय के ग्रन्थ को ६० श्लोकों में सम्पादित किया है, जिसमें 'मध्वमतविध्वंसन' नामक अप्पय की टीका भी है और स्वयं उनकी टिप्पणी भी है, पृ० ४ पर ३६ अज्ञात ग्रन्थों तथा सूत्रों का उल्लेख किया है जहाँ पर वे अप्पय द्वारा उदाहृत हुए हैं। यह द्रष्टव्य है कि शंकर एवं रामानुज ऐसे महान् आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में यह कहीं भी नहीं लिखा कि वे किसी देवता के अवतार थे । यदि किन्हीं ने कुछ कहा तो वे उनके शिष्य लोग थे ।
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