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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
१२७ में उन्होंने, ऐसा प्रतीत होता है, कुमारिल के मत की आलोचना की है। कुमारिल के अनुसार आत्म-ज्ञान के विषय, में उपनिषदों की उक्तियाँ केवल अर्थवाद हैं, क्योंकि वे कर्ता को यह ज्ञान देती हैं कि वह आत्मवान् है और आत्मा की कुछ विशेषताएं हैं। किन्तु शंकर का कथन है (वे० सू० १।१।१) कि पूर्व मीमांसा एवं ब्रह्म-मीमांसा में फल, जिज्ञासा का विषय एवं वैदिक प्रबोधनवाक्य (चोदना) भिन्न हैं। कुछ स्मृतियों ने इस बात की खिल्ली उड़ायी है कि केवल आत्मज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति हो जायगी। उदाहरणार्थ, बृहद्योगियाज्ञवल्क्य (६।२६ एवं ३४) में आया है कि 'ज्ञान एवं कर्म दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है । ऐसा कहना कि केवल ज्ञान मोक्ष की ओर ले जायगा, प्रमाद का प्रतीक है तथा शरीरश्रम के भय से अबोध लोग कर्म करना नहीं चाहते।
पूर्वमीमांसा के आरम्भिक एवं प्रमुख लेखकों के सिद्धान्त विचित्र एवं चकित करने वाले हैं । वेद की अमरता (नित्यता) एवं स्वयंभूता के विषय में उनके तर्क भ्रमजनक हैं और अन्य प्राचीन भारतीय सिद्धान्तों द्वारा भी अंगीकृत नहीं हो सके हैं। प्रभाकर एवं कुमारिल दोनों ने अपने सिद्धान्त के अन्तर्गत ईश्वर को फलदाता या प्रार्थना से प्रसन्न होकर मनुष्य की नियति का शासन करने वाले के रूप में कोई स्थान नहीं प्राप्त है। वे स्पष्ट रूप से ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार तो नहीं करते, किन्तु वे वैदिक उवितयों में वर्णित देवताओं एवं ईश्वर को गौण स्थान देते हैं या व्यावहारिक रूप से उन्हें न-कुछ समझते हैं । वे यज्ञ को ईश्वर की स्थिति तक उठा देते हैं और उनके यज्ञ-सम्बन्धी सिद्धान्त एक प्रकार से व्यावसायिक-से११ हैं, यथा-व्यक्ति को इतने कर्म करने चाहिए, पुरोहितों को दान देना चाहिए, हवि देना चाहिए, कुछ सदाचार के नियमों का पालन करना चाहिए, (यथा, मांस न खाना, केवल दूध पी कर जीना) क्योंकि ऐसा करने से बिना ईश्वर की मध्यस्थता के फल की प्राप्ति हो जाती है। धार्मिक संवेगों (भक्ति आदि) के प्रति कोई प्रेरणा नहीं है, किसी सर्वज्ञ की चर्चा नहीं है, न तो कोई स्रष्टा है और न लोक की सृष्टि । पूर्वमीमांसा ने निस्सन्देह जीवन में मनुष्य के कर्तव्यों (एवं अधिकारों) पर बल दिया है। अन्य दर्शनों ने विशेष रूप से इस संसार से मुक्त हो जाने तथा मृत्यूपरान्त मनुष्य की
पने को अधिक सम्बन्धित रखा है। पु० मी० स०, शबर एवं कमारिल ने वैदिक वचनों के विवरण या
प्रति महत्त्वपूर्ण योगदान किये हैं। शबर के भाष्य में लगभग ७ सहन उदधरण हैं, जिनमें कई सौ की पहचान अभी तक नहीं हो सकी है। इनमें से कम-से-कम एक सहस्र तै० सं० एवं तै० ब्रा० से लिये गये हैं। लगभग १२ अधिकरणों का सम्बन्ध अध्रिगुEष से है। कुछ अधिकरण तो प्रैष में प्रयुक्त कुछ शब्दों की व्याख्या
१०. ज्ञानं प्रधानं न तु कर्महीनं कर्म प्रधानं न तु बुद्धिहीनम् । तस्माद् द्वयोरेव भवेत सिद्धिोकपक्षो विहगः प्रयाति ॥ परिजानाभवेनुक्तिरेतदालस्यलक्षणम् । कायक्लेशभयाच्चैव कर्मचेच्छन्त्यपण्डिता ॥ बृहद्योगिया० (२६, ३४. कृत्यकल्प द्वारा उद्धृत, पृ० १४६)।
११. ईश्वर से व्यावसायिक व्यवहार के लिए देखिए मन्त्र ‘देहि मे ददामिते नि मे धेहि नि ते दधे । निहारमिन्नि मे हरा निहार नि हरामि ते। त० सं० (१।८।४।१-२), वा० सं० ३।५०); मिलाइए अथर्ववेद (३।१५।६)।
१२. देखिए तै० सं० (२।२५६)जहाँ दर्शपूर्णमास में संलग्न व्यक्ति के विषय में उल्लेख है : तस्यतव्रतं. नानतं वदेन मांसमश्नीयान्न स्त्रियमुपेयान्नास्य पल्पूलनेन वासः पल्पूलयेयुः' एवं तै० सं० (६।२।।२-३) जहां पयः, पवागः एवं आभिक्षा का प्रयोग क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए उचित भोजन कहा गया है। जैमिनि (४॥३॥८-६) में घोषित किया है कि यह फतवर्थ (आवश्यक) है। देखिए इस महानन्य का खण्ड २, पृ० ११३६११४० जहां अग्निष्टोम यज्ञ के लिए दीक्षित व्यक्ति के लिए नियमों का उल्लेख है।
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