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________________ ११ धर्मशास्त्र का इतिहास के द्वारा नहीं हुआ, प्रत्युत वे नित्य हैं, वेद का अर्थ नित्य है, किन्तु अक्षरों की व्यवस्था नित्य नहीं है, इसी से काठक, कालापक, पैप्पलादक आदि कई विभिन्न वैदिक संप्रदाय हैं। स्मृतियाँ भी कभी-कभी कहती हैं कि वेद का कोई लेखक नहीं है, ब्रह्मा इसे स्मरण रखते हैं और मनु मी विभिन्न कल्पों में धर्म को स्मृति में धारण करते हैं (पराशरस्मृति १।२१ ) । पू० मी० सू० (११११२८, अनित्यदर्शनाच्च) में वेद की नित्यता के विरोधी कुछ ऐसे वचन हमारे समक्ष रखे गये हैं, यथा 'बबर प्रावाहणि ( प्रवाहण के पुत्र) ने ऐसी इच्छा की' ( तै० सं० ७|१|१०/२) एवं 'कुसुरुविन्द औद्दालक ने इच्छा की' ( तै० सं० ७ २ २ १ ) जिनमें प्रावाहणि एवं औद्दालकि ( उद्दालक के पुत्र) के नाम आये हैं, जो मरणशील हैं, अत: वे अर्थात् विरोधी, तर्क रखते हैं कि इन मरणशील लोगों के पूर्व वेद नहीं था, अतः वह नित्य नहीं कहा जा सकता। इसका उत्तर पू० मी० सू० ( १ |१| ३१, परंतु श्रुतिसामान्यम्' ) में यह है कि ऐसे उदाहरणों की व्याख्या विभिन्न ढंग से होनी चाहिए, यथा -- 'बबर' एक ऐसा शब्द है जो अर्थ का अनुसारी है । अर्थात् उसके साथ चलने वाला है, और इसका अर्थ है मर्मर ध्वनि करने वाला तथा 'प्रावाहणि' ( प्र + वाह्य) का अर्थ है वायु । यह द्रष्टव्य है कि जैमिनि एवं यास्क की कई शतियों पूर्व 'ऐतिहासिक' नामक वैदिक व्याख्याताओं का सम्प्रदाय था । उदाहरणार्थ, ऋ० १०१६८ ५ एवं ७ में ऋष्टिषेण के पुत्र देवापि एवं शन्तनु की ओर निर्देश है। यास्क ( निरुक्त २।१० ) ने 'तत्र - इतिहासमाचक्षते' नामक शब्दों के साथ कहा है कि देवापि एवं शन्तनु कुरु वंश के भाई थे तथा छोटा भाई शन्तनु बड़े भाई के अधिकारों को दबा कर राजा बनाया गया और ये शब्द उन्हीं की ओर निर्देश करते हैं । ऋ० (१०।१० ) में यम एवं यमी के बीच कथनोपकथन है और निरुक्त (५/२ ) में इसके ८वें पद्म की ओर संकेत है । जो लोग वेद को नित्य मानते हैं वे ऐसी व्याख्या उपस्थित करेंगे कि यम का अर्थ है आदित्य एवं यमीका रात्रि । ऋ० ( ३।३३ ) में ऋषि विश्वामित्र एवं नदियों में एक संवाद है । निरुक्त (२।५-२७) ने ५-६ एवं १० पद्यों का अर्थ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से किया है और कहा है कि विश्वामित्र राजा कुशिक के पुत्र थे 1 दोनों अश्विनों के विषय में निरुक्त ( १२1१ ) ने कई मत दिये हैं, यथा - वे स्वर्गं एवं पृथिवी हैं या दिन एवं रात हैं या सूर्य एवं चन्द्र हैं और कहा है कि ऐतिहासिकों के मतानुसार वे ऐसे राजा थे जिन्होंने धनसम्पत्ति एकत्र की थी । सम्भवतः नैरुक्त लोग आपस में एक मत नहीं रखते थे और उन्होंने ऐसी व्याख्या की कि दोनों अश्विन्, विभिन्न प्राकृतिक रूपों के परिचायक थे । वृत्र के विषय में, जो ऋ० ( १।३२।११ ) में आया है, नैरुक्तों का कथन है कि ( निरुक्त २।१६ ) इस शब्द का अर्थ है 'वादल', किन्तु ऐतिहासिक लोगों के अनुसार वह (वृत्र) एक असुर था, जो त्वष्टा का पुत्र था । ऋ० (१।१०५ ) के १६ पद्यों (जिसके १८ पद्यों में "वित्तं मे अस्य रादसी" नामक टेक आयी है, में निरुक्त (४६) का कथन है कि यह सूक्त उस त्रित द्वारा रचा गया था जो कूप में फेंक दिया गया था। ऋ० ( ७।३३।११ ) में उर्वशी एवं वसिष्ठ (मैत्रा - वरुण) का, जो उर्वशी से उत्पन्न हुए थे, उल्लेख है और निरुक्त ( ५।१३ - १४ ) ने व्याख्या की है कि उर्वशी अप्सरा थी । ऋ० (१०/६५) में ऐल पुरूरवा एवं उवंशी के बीच कथनोपकथन है । किन्तु नैरुक्तों एवं ऐतिहासिकों की व्याख्या उस कथा के विषय में नहीं आयी है । सम्भवतः नैरुक्त लोग उर्वशी को 'बिजली' के तथा पुरूरवा को गर्जन करते वायु के अर्थ में लेते हैं। ऋ० (१०।१०८) में सरमा ( इन्द्र को कुतिया ) एवं पणियों के बीच संवाद है । निरुक्त (११।२५) में व्याख्या है और कहा गया है कि इसमें एक आख्यान ( कहानी ) है, यथा- इन्द्र द्वारा भेजी गयी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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