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________________ अध्याय २९ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त इस अध्याय में हम पूर्वमीमांसा के कुछ विशिष्ट मौलिक सिद्धान्तों को, कुछ संकेतों एवं उन पर रची गयी कुछ टिप्पणियों के साथ उपस्थित करेंगे। यथास्थान हम प्रभाकर एवं उनके अनुयायियों के मतों की ओर भी निर्देश करते रहेंगे। (१) वेद नित्य, स्वयंभू एवं अपौरुषेय है और अमोघ है : यही पूर्वमीमांसा सिद्धान्त का हृदय या सार है। देखिए पू० मी० सू० (१।११२७-३२) एवं शबर (१।१।५) तथा श्लोकवार्तिक (व्याक्याधिकरण, श्लोक ३६६३६८)।' संक्षिप्त रूप से तर्क यों है-वेद आज भी पढ़ा जाता है और प्राचीनकाल में भी गुरुओं से पढ़ा जाता था, इस विषय में कोई प्रमाण नहीं मिलता कि किसने इसका प्रणयन किया या किसने इसे सर्वप्रथम पढ़ा । यदि ऐसा कहा जाय कि इस प्रकार का तर्क महाभारत के विषय में भी दिया जा सकता है, तो उत्तर यह है कि लोग यह जानते हैं कि व्यास ने इसे लिखा है। इसी प्रकार स्मृतियों एवं पुराणों में जो यह कहा गया है कि प्रजापति ने वेद का प्रणयन किया, तो यह केवल अर्थवादमात्र है जो किसी साक्ष्य या प्रत्यक्ष पर आधृत नहीं है, और वह केवल वेद की प्रामाणिकता को स्थापित करने के लिए ही है। यदि शब्द एवं अर्थ का सम्बन्ध नित्य है और वह किसी व्यक्ति द्वारा उत्पन्न नहीं है तो वही तर्क वेद के विषय में भी है। यह मत नैयायिकों के मत से भिन्न है। नैयायिकों का कथन है कि वेद का प्रणेता ईश्वर है। यह मत बृहदारण्यकोपनिषद् (२।४११०) पर आधृत शंकराचार्य द्वारा वे० सू० (१।११३, शास्त्रयोनित्वात्) की व्याख्या से भी भिन्न है। मनु० (१।२१, जिसमें आया है कि ब्रह्मा ने वेद के शब्दों से सबके कर्तव्यों एवं नामों की उत्पत्ति की है) में ऐसा कहा लगता है कि वेद स्वयंभू है। इसी प्रकार महाभाष्य (वार्तिक ३, पाणिनि ४।३।१०१, 'तेन प्रोक्तम्') में आया है कि वेदों का प्रणयन किसी १. पू० मी० सू० (११११५) पर शबर ने टीका को है-'तस्मान्मन्यामहे केनापि पुरषेण शब्दानामर्थः सह सम्बन्धं कृत्वा संव्यवहाँ वेवा प्रणीता इति । इविदानी मुच्यते । अपौरुषेयत्वात्सम्बन्धस्य सिद्धिमिति । कथं पुनरिदमवगम्यतेऽपौरुषेय एव सम्बन्ध इति । पुरुषस्य सम्बन्धरभावात् । कथं सम्बन्धो नास्ति । प्रत्यक्षस्य प्रमाणास्याभावात् तत्पूर्वकत्वाच्वेतरेषाम्'; वेदस्याध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययन यथा ॥ भारतेपि भवेदेवं कर्तृ स्मृत्या तु वाध्यते । वेदेपि तत्स्मृतिर्यातु सार्थवाद निबन्धना॥पारम्पर्येण कर्तारं नाध्येतारं स्मरन्ति हि । श्लोकवातिकवाक्याधिकरण श्लोक-३६६-३६८; प्रकरणपञ्चिका (पृ० १४०) में टिप्पणी है : 'कथं पुनरपौरुषेयत्वं वेदानां । पुरुषस्य कर्तुरस्मरणात् ... काठकादिसमाख्यापि न क सद्भावमुपकल्पयितुमलम् । प्रवचनेनापि तदुपपत्त': । जब तर्क रूप में कहा जाय तो यों कथन उपस्थित किया जा सकता है : 'वेदाः अपौरुषेयाः, अस्मर्यमाणकत करवात्। यन्नवं तनवं यथा महाभारत रघुवंशादि।' शंकराचार्य (वे० सू० ११३।२६, अतएव च निस्पस्थम्) ने अपने भाष्य का आरम्भ यों किया है : 'स्वतन्त्रस्य कर्तुरस्मरणादिभिः स्थिते वेवस्य नित्यत्वे ।' , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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