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________________ पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त सरमा नामक कुतिया एवं पणियों (जो असुर थे) के बीच बातचीत हुई थी। इन सभी उपर्युक्त कथानकों में नरुक्तों के अनुसार प्राकृतिक स्वरूपों की ओर निर्देश है, किन्तु ऐतिहासिकों के अनुसार इनमें ऐतिहासिक आधार है । यद्यपि निरुक्त द्वारा यह स्पष्ट रूप से नहीं व्यक्त किया गया है कि ऐतिहासिक लोग वेद को नित्य नहीं मानते, किन्तु उनकी (ऐतिहासिकों की) व्याख्याओं से प्रकट होता है कि वे लोग वेद की नित्यता के सिद्धान्त को नहीं मानते। (२) शब्द एवं अर्थ का सम्बन्ध नित्य है : यह शबर (११११५) द्वारा व्याख्यायित किया गया है कि कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो शब्द एवं अर्थ के सम्बन्ध को समझाने में समर्थ हो सका हो । देखिए पू० मी० सू० (१।१।६-२३) और शबर का भाष्य; श्लोकवार्तिक (४४४ श्लोक आये हैं) एवं प्रकरणपञ्चिका (पृ. १३३-१४०) । इस प्रश्न पर कि 'गो' के समान कोई शब्द क्या व्यक्त करता है, पू० मी० सू० ने उत्तर दिया है कि एक कोई भी शब्द 'आकृति' (या जाति) अर्थात् सार्वजनीन या एक विशिष्ट वर्ग का द्योतक है। संक्षेप में, मीमांसकों का कथन है कि शब्द, अर्थ एवं दोनों का सम्बन्ध नित्य है। देखिए पू० मी० सू० (१।३।३०-३५)। (३) आरमा : पू० मी० सू० ने किसी भी सूत्र में आत्मा के अस्तित्व के विषय में कोई बात स्पष्ट रूप में नहीं लिखी है । शंकराचार्य ने वे० सू० (३।३।५३) की व्याख्या में इस बात की ओर निर्देश किया है और कहा है कि भाष्यकार शबर ने आत्मा के अस्तित्व के विषय में उद्घोष किया है तथा श्रद्धेय उपवर्ष ने पूर्वमीमांसा की अपनी व्याख्या में यह कहकर कि वे शारीरिक (अर्थात् वेदान्तसूत्र) के विषय में विवेचन करते समय इस विषय में विचार करेंगे, इस प्रश्न पर विचार करने से अपने को रोक दिया है । सम्भवत: आत्मा-सम्बन्धी वक्तव्य के अभाव में कुछ लोगों ने पूर्वमीमांसा को अनीश्वरवादी कह डाला है। कुमारिल ने अभियोग लगाया है कि यद्यपि मीमांसा अनीश्वरवादी नहीं है तथापि कुछ लोगों ने इसे लोकायत 3 कह डाला है, और इसी से २. सूत्र (पू० मी० सू० ११११५) में कई निष्कर्ष निहित हैं। प्रथम यह है-'औत्पत्तिकः (नित्यः) शब्दस्य अर्थेन सम्बन्धः दूसरा है-'तस्य, ज्ञानमुपदेशः (उपदेश, इसको, अर्थात् धर्म को जानने का साधन है); यहां ज्ञान का अर्थ है 'ज्ञायते येन' (श्लोकवार्तिक, औत्पत्तिक सूत्र, श्लोक); दूसरा अंश है- 'अव्यतिरेकश्चार्थेऽनुपलब्ध (जो प्रत्यक्ष नहीं है उसके लिए यह अव्यतिरेक है, अमोध या निश्चित है); तत्प्रमाणमनपेक्षत्वात्, अर्थात् वैविक आज्ञा ज्ञान का एक उचित साधन है क्योंकि यह स्वतन्त्र है। बादरायणस्य (यही बादरायण का भी मत है)। 'शब्द क्या है ?' का उत्तर विभिन्न लेखकों ने विभिन्न ढंगों से दिया है। श्रद्धास्पद उपवर्ष का कथन है कि 'गौ!' ऐसे शब्द में अक्षर ही शब्द के द्योतक हैं (देखिए शबर, १११३५ एवं शंकर, वे० सू० २३।२८)। अन्य मत यह है कि अक्षर 'स्फोट' को व्यक्त करते हैं और स्फोट हो अर्थ का परिचायक होता है। इस विषय पर यहां विचार नहीं किया जा सकता। ३. प्रायेणेव हि मीमांसा लोके लोकायती कृता। तामास्तिक पथे कर्तुमयं यत्रः कृतो मया।। श्लोक वा० (श्लोक १०)। न्यायरत्नाकर ने टिप्पणी दी है कि भर्तृ मित्र ने मीमांसा के विषय में कई त्रुटिमय सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं यथा-आवश्यक कर्मों या निषिद्ध कर्मों के सम्पादन से वाञ्छित या अवाञ्छित फलों की प्राप्ति नहीं होती। देखिए इस महाग्रन्थ की जिल्द ३, पृ०-४६-४७, टिप्पणी ५७ एवं जिल्द २, पृ० ३५८-३५६ जहाँ लोकायितों एवं नास्तिकों का उल्लेख है। लोकायत का अर्थ समय-समय पर बदलता रहता है। कौटिल्य (१२) ने लोकायत को सांख्ययोग के साथ आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत रखा है। पाणिनि को 'लोकायत' का ज्ञान पा। उनके सूत्र (४१२१६०) में 'ऋतूक्थादिसूत्रान्ताक् है और उक्यादिगण में लोकायत द्वितीय शब्द है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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