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________________ १०३ धर्मशास्त्र का इतिहास हैं। शंकराचार्य का कथन है कि वे० सू० ( १।३।२१, २1१।३१, २।१।३१, ३।३।१८ ) में जहाँ 'तदुक्तम्' आया है वहाँ स्वयं वे० सू० के पूर्ववर्ती सूत्र की ओर ही निर्देश किया गया है। वे० सू० ( ३।३।२६, ३३३३, ३।३।५० एवं ३ । ४ । ४२ ) में शंकराचार्य का कथन है कि ये सूत्र क्रम से पू० मी० सू० (१०/८/१५, ३१३८, ११।४।१० एवं १।३।८-६ ) की ओर तथा वे० सू० ( ३ | ३ | ४३ ) संकर्षकाण्ड की ओर संकेत करते हैं । अन्य आचार्य शंकराचार्य से तथा आपस में इस विषय में असहमति व्यक्त करते हैं । वल्लभाचार्य का, जो भागवत को वेद के समान प्रामाणिक मानते हैं और कहीं-कहीं वेद से अति उच्च ठहराते हैं, कथन है कि वे० सू० (३|३|३३, ३|३|५० एवं ३ | ४ | ४२ ) में आये 'तदुक्तम्' शब्द भागवत पुराण के वचनों की ओर संकेत करते हैं । वे० सू० ( ३ | ३ | ४ ४ ) में ནཱ༠ मी० सू० ( ३ | ३ | १४ ) के शब्दों एवं सिद्धान्तों की ध्वनि टपकती है । १५ ' तदुक्तम्' का अर्थ सामान्यतः सभी स्थलों पर एक ही होना चाहिए, अर्थात् इन शब्दों को सदैव पू० मी० सू० या वे० सू० की ओर ही संकेत करते हुए समझा जाना चाहिए । किन्तु इन विकल्पों में किसी एक को पूर्णतया स्वीकार करने के लिए कोई आचार्य सन्नद्ध नहीं होते । एक अन्य बात भी विचारणीय है कि विद्यमान पू० मी० सू० में 'तदुक्तम्' बहुत कम प्रयुक्त हुआ है, जैसा कि ५३६ में जहाँ यह ५।१।१६ की ओर संकेत करता है । | १६ पू० मी० सू० ने यद्यपि बादरायण को पाँच बार उल्लिखित किया है, तथापि यह कहीं भी वे० सू० द्वारा प्रभावित हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता । दूसरी ओर न केवल वे० सू० के कुछ सूत्रों में 'तदुक्तम्' शब्द पू० मी० सू० की ओर संकेत करते हुए दृष्टिगत होते हैं, प्रत्युत वे० सू० ने कुछ पूर्वमीमांसा के शब्दों का बहुधा प्रयोग किया है, यथा -- अर्थवाद, प्रकरण, लिंग, विधि, शेष, तथा शुद्ध रूप से पूर्वमीमांसा विषयों का प्रयोग किया है, यथा -- ३ | ३ | २६ ( कुशाछन्दस्तुत्युपगानवत्), ३।३।३३ ( औपसदवत् ), ३।४।२० ( धारणवत् ), ४|४|१२ ( द्वादशाहवत् ) । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि विद्य मान वेदान्तसूत्र अधिक अंश में पू० मी० सू० की पूर्वकल्पना करता है और पू० मी० सू० किसी रूप में वेदान्तसूत्र से प्रभावित होता नहीं प्रकट होता । अब प्रस्तुत लेखक व्यास, जैमिनि, बादरायण, पू० मी० सू० एवं वे० सू० के विषय के विभिन्न सूत्रों को एकत्र कर अधोलिखित निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करता है- (१) महाभारत एवं कुछ पुराणों का कथन है कि जैमिनि पाराशर्य व्यास के शिष्य थे । किन्तु यह कथन जैमिनि के लिए सामवेद- ज्ञान के प्रेषण के सम्बन्ध में ही है और इसे उसी विषय तक सीमित रखना चाहिए (अन्य विषयों से सम्बन्धित नहीं करना चाहिए), जैसा कि मीमांसा का सिद्धान्त " यावद्वचनं वाचनिकम्" कहता है । हमें जैमिनीय ब्राह्मण, जैमिनीय श्रौत सूत्र एवं गृह्य सूत्र की उपलब्धि हुई है । जैमिनि को सामवेद का ज्ञान दिया गया, ऐसी परम्परा प्रचलित है, जिसे त्रुटिपूर्ण सिद्ध करने के लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है । किन्तु इस परम्परा को ༢༠ मी० 'सू० एवं वे० सू० के लेखकों तक बढ़ाने के लिए हमारे पास कोई साक्ष्य नहीं है । वल्लभाचार्य जैसे पश्चात्कालीन मध्यकालिक लेखकों ने, जिन्हें इतिहास, कालनिर्णय आदि का ज्ञान नहीं था और जो अपने प्रिय १५. मिलाइए 'लिंगभूयस्त्वात्तद्धि बलीयस्तदपि, वे० सू० ( ३।३।४४) एवं 'श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात्', पू० मी० सू० ( ३।३।१४ ) । १६. अन्ते वा तदुक्तम् । पू० मी० सू० (५।३।६) । यह ५।१।१६ ( अन्ते तु बादरायणस्तेषां प्रधानशब्दत्वात् ) की ओर निर्देश करता है । पू० मी० सू० (६।२।२ ) में 'तदुक्तदोषम् ' आया है जो पू० मी० सू० (७।२।१३ ) की ओर निर्देश करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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