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________________ मीमांसा एवं धर्मशास्त्र १०३ लेखकों एवं ग्रन्थों को गौरव देने में अतिशयोक्ति का सहारा लेते हैं, सामवेद के विषय की परम्परा को पू० मी० सू० एवं वे० सू० के लेखकों तक बढ़ा दिया है। उपर्युक्त विवेचन से यह प्रकट होता है कि प्रस्तुत पू० मी० सू० प्रस्तुत वे० सू० से पुराना है तथा पू० मी० सू०का लेखक वे० सू० के लेखक का शिष्य नहीं हो सकता। मध्यकालीन लेखकों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि जैमिनि एवं बादरायण गोत्रनाम हैं, वे केवल व्यक्तिनाम ही नहीं हैं। (२) पाणिनि से यह प्रकट है कि उनके पूर्व पाराशर्य एवं कर्मन्द द्वारा लिखित दो भिक्षु-सूत्र थे। पतञ्जलि ने काशकृत्स्न द्वारा लिखित एक मीमांसा-ग्रन्थ का उल्लेख किया है । अत: ईसा से कई शतियों पूर्व ही भिक्षुओं एवं मीमांसा पर सूत्र-ग्रन्थ प्रणीत हो चुके थे। (३) प्रस्तुत वेदान्तसूत्र में उल्लिखित जैमिनि के मतों की जाँच से प्रतीत होता है कि जैमिनि ने वेदान्त पर भी कोई ग्रन्थ लिखा था। नैष्कर्म्यसिद्धि में पाये गये कुछ उल्लेखों से इस बात की पुष्टि होती है। इस बात को सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता कि ये जैमिनि बादरायण या पाराशर्य के शिष्य थे। इसके विपरीत वे० सू० (३।४।४०) में 'जैमिनेरपि' नामक शब्द प्रस्तुत वे० सू० के लेखक द्वारा जैमिनि के समर्थन के प्रति प्रकट किये गये आभार-प्रदर्शन की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। प्रस्तुत वे० सू० का लेखक जैमिनि के मतों के प्रति विशिष्ट सम्मान व्यक्त करता है, क्योंकि उसने अन्य आचार्यों (जिनमें बादरायण भी सम्मिलित हैं) की अपेक्षा जैमिनि के उद्धरण बहुत बार दिये हैं। ऐसा मान लेना आवश्यक हो जाता है कि जैमिनि नाम के दो लेखक थे, जिनमें एक ने पूर्वमीमांसा एवं वेदान्त जैसे विषयों पर लिखा था और दूसरे ने प्रस्तुत (विद्यमान) पू० मी० सू० का प्रणयन किया था। वह जैमिनि विद्यमान पू० मी० सू० के लेखक जैमिनि से भिन्न था। (४) यह बात कि पू० मी० सू० ने बादरायण को पाँच बार उल्लिखित किया है, जिनमें चार बार के उल्लेख केवल यज्ञिय मामलों के विषय में ही हैं, तथा यह बात कि वे० सू० ने वेदान्त के मामलों में बादरायण का उल्लेख नौ वार किया है, यह अनुमान निकालने के लिए हमें प्रेरित करती है कि बादरायण ने कोई ऐसा ग्रन्थ अवश्य लिखा था जिसमें पूर्वमीमांसा एवं वेदान्त के विषय थे। वह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। यह बादरायण उस बादरायण से भिन्न है जिसे शंकराचार्य आदि ने प्रस्तुत वे० सू० का लेखक माना है। अत: बादरायण नाम के दो लेखक थे। (५) शंकराचार्य, भास्कर एवं अन्य आरम्भिक भाष्यकारों के मत से प्रस्तुत वे० स० के प्रणेता बादरायण ही थे। किन्तु ६ वीं शती के उपरान्त बादरायण तथा वेदव्यास के नामों में भ्रान्ति उत्पन्न हो गयी। . (६) जहाँ तक पूर्वमीमांसासूत्र एवं वेदान्तसूत्र का सम्बन्ध है, जैमिनि केवल दो ही हैं (तीन नहीं, जैसा कि प्रो० शास्त्री का कथन है (इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ५०, पृ० १७२) और बादरायण भी दो हैं। यहाँ पर हमारा प्रमुख सम्बन्ध केवल उन पूर्वमीमांसा-सिद्धान्तों एवं प्रणाली से है जिनका धर्मशास्त्र के ग्रन्थों पर प्रभाव पड़ा है । यहाँ इतना कह देना आवश्यक है कि जैमिनि के पश्चात् सभी पूर्वमीमांसाग्रन्थ स्मृतियों एवं धर्मशास्त्र पर निर्भर रहे हैं। दो-एक उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। पू० मी० सू० (११३) ने स्मृतियों की प्रामाणिकता की सीमाओं का उल्लेख किया है। पू० मी० सू० (६।७।६) ने 'धर्मशास्त्र' शब्द का उल्लेख किया है । पू० मी० सू० स्पष्ट रूप से अपने प्रमेयों (सिद्धान्तों) के समर्थन में स्मृति का सहारा लेता है, यथा--१२।४।४३ में । पू० मी० सू० (६।१।१२) पर शबर ने एक स्मृति-श्लोक उद्धृत किया है, जो सर्वथा मनु (८१४१६) एवं आदिपर्व (८२।२३) का श्लोक है । शबर ने अपने तर्कों की व्याख्या एवं समर्थन में बहुधा धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों को उद्धृत किया है, यथा-पू० मी० सू० (६।१।१०) पर आप? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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