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________________ ६२ धर्मशास्त्र का इतिहास है, अतः हम इसके विषय में कुछ और नहीं लिखेंगे। इस विषय में देखिए पं० वी० ए० रामस्वामी शास्त्री का निबन्ध (इण्डि० हि• क्वा०, जिल्द ६, पृ० २६०-२६६), जहाँ संकर्षकाण्ड को पू० मी० सू० का परिशिष्ट कहा गया है। मध्यकाल के पश्चात्कालीन लेखकों ने मीमांसाशास्त्र को विद्यास्थानों में (वेदों के अतिरिक्त) अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहा है, क्योंकि यह अन्य वैदिक वचनों के अर्थ के विषय में उत्पन्न सन्देहों, भ्रामक धारणाओं एवं अबोधता को दूर करता है तथा अन्य विद्यास्थानों को अपने अर्थ स्पष्ट करने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती है। कुछ ग्रन्थों में, यथा वेदान्तसूत्र पर रामानुज के भाष्य एवं प्रपंचहृदय में, मीमांसाशास्त्र को बीस अध्यायों वाला कहा गया है और सूचित किया गया है कि सम्पूर्ण पर बोधायन द्वारा प्रणीत कृतकोटि नामक एक भाष्य था, आगे चलकर उपवर्ष द्वारा एक छोटी टीका प्रणीत हुई, देव-स्वामी ने १६ अध्यायों पर एक टीका लिखी और भवदास ने भी जैमिनि पर एक टीका लिखी, किन्तु शबर ने केवल प्रथम १२ अध्यायों पर ही टीका लिखी और संकर्ष पर कुछ नहीं लिखा । राजराज (६६६ ई.) के एक अभिलेख (इडि० हि० क्वा०, जिल्द १५, पृ० २६२२६३) में आया है कि एक विद्वान् ब्राह्मण को कुछ भूमि इसलिए दी गयी कि वह चार छात्रों के रहने और पढ़ने का प्रबन्ध करे, उसमें जिन विषयों के पठन-पाठन का उल्लेख है, उनमें बीस अध्यायों वाली मीमांसा की भी चर्चा है। ये बीस अध्याय इस प्रकार हैं, १२ अध्याय (जिनमें तीसरे, छठे एवं दसवें अध्यायो को छोड़कर प्रत्येक अध्याय ४ पादों में, तीसरा, छठा एवं दसवां अध्याय ८ पादों में विभाजित है, इस प्रकार कुल ६x४+३४८-६० पादों में) जैमिनि के हैं, ४ अध्याय संकर्षकाण्ड के हैं और शेष ४ अध्याय वेदान्त सूत्र के हैं। बारह अध्यायों को बहुधा पूर्वमीमांसा कहा जाता है, जो एक बृहद् ग्रन्थ है, जिसमें ६१५ या लगभग एक सहस्र अधिकरण एवं लगभग २७०० सूत्र हैं, जो विभिन्न विषयों पर हैं और ऐसे नियमों का उल्लेख करते हैं जो वैदिक व्याख्या में सहायक होते हैं। याज्ञ० (११३) ने जिस मीमांसा का उल्लेख किया है, वह सम्भवत: १२ अध्यायों वाला जैमिनि का ग्रन्थ है। बहुत-से लेखकों ने, यथा-माधवाचार्य ने पूर्व एवं उत्तर नामक दो मीमांसाओं का उल्लेख किया है, जो १२ अध्यायों में हैं, जैमिनि द्वारा लिखित हैं तथा उनमें वेदान्तसूत्र के चार अध्याय हैं। शंकराचार्य ने विद्यमान पूर्वमीमांसा को 'द्वादशलक्षणी' (वे० सू० ३।३।२६), 'प्रथम तन्त्र' (वे० सू० ३।३।२५, ३।३।५३ एवं ३।४।२७), प्रथम काण्ड' (वे० सू० ३।३।१, ३।३।३३, ३।३।४४, ३।३।५०), 'प्रमाणलक्षण' (वे० सू० ३।४।४२) कहा है। एक स्थान (वे. सू० ३।३।५३) पर उन्होंने पूर्वमीमांसासूत्र के प्रथम पाद को 'शास्त्रप्रमुख इव प्रथमे पादे' कहा है और इससे यही व्यक्त किया है कि वे पू० मी० सू० एवं वेदान्तसूत्र को एक शास्त्र मानते हैं। ८. प्रातिस्विकानेकवाक्यार्थगततत्तदज्ञानसंशयविपर्ययव्युदासेन पारमार्थिकार्थसतत्त्वस्वरूपनिर्णयार्थ समस्तरप्येभिविद्यास्थानरभ्यर्थ्यमानत्वात्तेभ्योपि मीमांसास्य, विद्यास्थानं गरीयस्तरम् । तथा याहुः-चतुर्दशस विद्यासु मीमांसव गरीयसी। जैमिनीयसूत्रार्थसंग्रह (ऋषिपुत्र-परमेश्वर कृत, भाग-१, पृ० २, त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरीज)। ६. ये पूर्वोत्तरमीमांसे ते व्याख्यायातिसंग्रहात् । कृपालमाधवाचार्यों वेदार्थ वषतुमद्यतः ॥ ऋग्वेद को टीका , आरम्भिक श्लोक ४ (पूना संस्करण)। कुछ पाण्डुलिपियों में 'माधवाचार्यो' के स्थान पर 'सायणाचार्यों लिखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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