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________________ मीमांसा एवं धर्मशास्त्र १ free एक मीमांसा ग्रन्थ उपस्थित था और उसे ब्राह्मण स्त्रियाँ पढ़ती थीं। यह नहीं ज्ञात हो पाता कि काशकृत्स्नि-मीमांसा की विषयवस्तु क्या थी, वह जैमिनि की पूर्वमीमांसा के समान थी या उत्तरमीमांसा ( वेदान्तसूत्र ) के समान थी, या उसमें मीमांसा एवं वेदान्त दोनों थे, जिनमें अन्तिम का होना असम्भव नहीं है । वेदान्तसूत्र ( १1४ 1२२) ने आचार्य काशकृत्स्न का मत उल्लिखित किया है, जिसे शंकराचार्य ने अन्तिम निष्कर्ष एवं वेदविहित माना है। काशकृत्स्न का पुत्र काशकृत्स्नि कहा गया होगा ( पाणिनि ४|१|६५ ) । उन महत्त्वपूर्ण विषयों पर, जिन पर मीमांसा के अपने सिद्धान्त हैं, वार्तिकों एवं पतञ्जलि ने पूर्ण विवेचन उपस्थित किया है । पाणिनि ( १/२/६४ ) के वार्तिक सं० ३५ से ५६ में पदों (शब्दों) के अर्थ ( या भाव ) के प्रश्न पर लम्बा विवेचन है ( सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ), यथा - यह आकृति है या व्यक्ति है ? वार्तिक सं० ३५ में ऐसा आया है कि वाजप्यायन के मत से आकृति किसी पद का भाव है, किन्तु व्याडि के अनुसार ( वार्तिक ४५ में - द्रव्याभिधानं व्याडि : ) द्रव्य ( या व्यक्ति) पद का भाव है। महाभाष्य ने टिप्पणी की है कि पाणिनि ने कुछ ऐसे सूत्र ( यथा --- ११२।५८ जात्याख्यायाम् आदि) रचे हैं जिनमें उन्होंने 'जाति' को पदों के अर्थ में लिया है, किन्तु अन्य सूत्रों में ( यथा - १ | ३ |६४, सरूपाणाम् आदि) उन्होंने 'द्रव्य' को शब्दों (पदों) के अर्थ में लिया है । यह द्रष्टव्य है कि जैमिनि (१।३३३, आकृतिस्तु क्रियार्थत्वात् ) के मत से 'आकृति' शब्दों (पदों) का भाव है । पाणिनि (४/१/६२ ) के वार्तिक सं० ३ ‘सामान्य चोदनास्तु विशेषेषु' पर पतंजलि का कथन है कि कुछ वस्तुओं एवं पदार्थों के सन्दर्भ में सामान्य रूप से घोषित विधियाँ विशेष वस्तुओं एवं पदार्थों से ही सम्बन्ध रखती हैं (अर्थात् उन्हीं के लिए प्रयुक्त होती हैं) और उन्होंने इस विषय में मीमांसा के उदाहरण उपस्थित किये हैं । वार्तिककार एवं पतञ्जलि दोनों ने 'चोदना' का प्रयोग पूर्वमीमांसा वाले अर्थ में किया है और उन्होंने ऐसे उदाहरण दिये हैं जो शाबर भाष्य से मिलते-जुलते हैं । व्याकरण के अध्ययन से जिन बहुत से उद्देश्यों की पूर्ति होती है उनमें 'ऊह' एक है ( जो पूर्वमीमांसासूत्र के नवें अध्याय का विषय है ) । पाणिनि (१।४।३) पर भाष्य करते हुए पतञ्जलि ने मीमांसा की भाषा का व्यवहार किया है- 'अपूर्व इव विधिर्भविष्यति न नियमः ।' ऐसा प्रतीत होता है कि संकर्षकाण्ड आरम्भिक कालों से ही उपेक्षित-सा रहा है। इसके प्रणेता के विषय में मतमतान्तर रहा है । वेङकटनाथ की न्यायपरिशुद्धि का कथन है ( इण्डि० हि० क्वा०, जिल्द ६, पृ० २६६ ) कि संकर्षकाण्ड के प्रणेता थे काशकृत्स्न । शबर के भाष्य से प्रकट होता है कि उनके समय में यह काण्ड विद्यमान था और वह उनकी दृष्टि में जैमिनि कृत था । शंकराचार्य ने अपने भाष्य ( वे० सू० ३।३।४३ प्रदानवदेव तदुक्तम् ) में संकर्ष का उल्लेख किया है और उससे एक सूत्र उद्धृत किया है और कहा है कि वह वेदान्तसूत्र को ज्ञात था और ऐसा प्रकट होता है कि यह जैमिनि कृत है। ऐसा प्रकट होता है कि रामानुज ने भी माना है कि जैमिनीय १६ अध्यायों (१२ अध्यायों में पूर्वमीमांसा और चार अध्यायों में संकर्ष) में था । अप्पयदीक्षित के कल्पतरुपरिमल (वे० सू० ३।३।४३ पर टीका) में ऐसा आया है कि देवताओं पर विचार-विमर्श के लिए संकर्षकाण्ड प्रारम्भ किया गया और यह १२ अध्यायों वाले पू० मी० सू० का परिशिष्ट है । संकर्षकाण्ड का धर्मशास्त्र पर कोई प्रभाव नहीं चाहिए। किन्तु यदि जैमिनि काशकृतिस्न से पहले के थे या उनके समकालीन थे, तो यह सम्भव है कि पू० मी० सू० में उन्होंने काशकृत्स्न का नाम न लिया हो अतः यद्यपि मौन रह जाने से ऐसा तर्क देना उतना ठीक एवं बलशाली नहीं कहा जा सकता, तथापि यह कहा जा सकता है कि विद्यमान पूर्वमीमांसासूत्र कम-से-कम ई० पू० २०० के पूर्व ही प्रणीत हुआ होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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