________________
धर्मशास्त्र का इतिहास
संक्रान्ति दिन या रात्रि दोनों में हो सकती है। दिन वाली संक्रान्ति पूरे दिन मर पुण्यकाल वाली होती है। रात्रि वाली संक्रान्ति के विषय में हेमाद्रि, माधव आदि में लम्बे विवेचन उपस्थित किये गये हैं। एक नियम यह है कि दस संक्रान्तियों में (मकर एवं कर्कट को छोड़कर) पुण्यकाल दिन में होता है, जब कि वे रात्रि में पड़ती हैं। अन्य विवेचनों के विषय में देखिए तिथितत्त्व (पृ० १४४-१४५), धर्मसिन्धु (पृ० २-३) । हम विस्तार में यहाँ नहीं पड़ेंगे।
पूर्ण पुण्यलाभ के लिए पुण्यकाल में ही स्नान-दान आदि कृत्य किये जाते हैं। सामान्य नियम यह है कि रात्रि में न तो स्नान किया जाता है और न दान। पराशर (१२।२० ; स्मृति च० १, पृ० १२०) में आया है कि सूर्यकिरणों से पूत दिन में स्नान करना चाहिए, रात्रि में ग्रहण को छोड़कर अन्य अवसरों पर स्नान नहीं करना चाहिए। यही बात विष्णुधर्मसूत्र में भी है। किन्तु कुछ अपवाद भी प्रतिपादित हैं। भविष्य० (हे०, काल, पृ० ४३३; का०नि०, पु० ३३९) में आया है कि रात्रि में स्नान नहीं करना चाहिए, विशेषत: रात्रि में दान तो नहीं ही करना चाहिए, किन्तु उचित अवसरों पर ऐसा किया जा सकता है, यथा ग्रहण, बिवाह, संक्रान्ति, यात्रा, जनन, मरण तथा इतिहास श्रवण में। और देखिए गोभिल (हे०, काल, पृ० ४३२; नि० सि०, पृ० ७)। अतः प्रत्येक संक्रान्ति पर, विशेषतः मकर-संक्रान्ति पर स्नान नित्य कर्म है। दान निम्न प्रकार के किये जाते हैं-मेष में भेड़, वृषभ में गौएँ, मिथुन में वस्त्र, भोजन एवं पेय पदार्थ, कर्कट में घृतधेनु, सिंह में सोने के साथ वाहन, कन्या में वस्त्र एवं गौएँ, नाना प्रकार के अन्न एवं बीज, तुला-वश्चिक में वस्त्र एवं घर, धन में वस्त्र एवं वाहन, मकर में इन्धन एवं अग्नि, कुम्भ में गौएँ जल एवं घास, मीन में नये पुष्प। अन्य विशेष प्रकार के दानों के विषय में देखिए स्कन्द० (हे०, काल, पृ० ४१५-४१६, नि० सि०, पृ० २१८), विष्णुधर्मोत्तर, कालिका० (हे०, काल, पृ० ४१३; कृत्यकल्प०, नयत०, पृ० ३६६-३६७, आदि।
मकर-संक्रान्ति के सम्मान में तीन दिनों या एक दिन का उपवास करना चाहिए। जो व्यक्ति तीन दिनों तक उपवास करता है और उसके उपरान्त स्नान करके अयन (सूर्य के उत्तरायण या दक्षिणायन) पर सूर्य की पूजा करता है, विषुव एवं सूर्य या चन्द्र के ग्रहण पर पूजा करता है तो वह वांछित इच्छाओं की पूर्णता पाता है।' आपस्तम्ब में आया है कि जो व्यक्ति स्नान के उपरान्त अयन, विषुव, सूर्यचन्द्र-ग्रहण पर दिन भर उपवास करता है वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। किन्तु पुत्रवान् व्यक्ति को रविवार, संक्रान्ति एवं ग्रहणों पर उपवास नहीं करना चाहिए (वृद्धवसिष्ठ, हे०, काल, पृ० ४१२; व० क्रि० को०, पृ० ९१) ।
४. स्कन्दे--धेनुं तिलमयों राजन् दद्याद्यश्चोत्तरायणे। सर्वान् कामानवाप्नोति विन्दते परमं सुखम् ॥ विष्णुधर्मोत्तरे--उत्तरे त्वयने विप्रा वस्त्रद.नं महाफलम्। तिलपूर्वमनड्वाहं दत्त्वा रोगः प्रमुच्यते॥ शिवरहस्ये । पुरा मकरसंक्रान्तौ शंकरो गोसवे कृते। तिलानुत्पादयामास तृप्तये सर्वदेहिनाम्। तस्मात्तस्यां तिलः स्नानं कार्य चोद्वर्तनं बुधैः । देवतानां पितणां च सोदकैस्तर्पणं तिलैः। तिला देयाश्च विप्रेभ्यः सर्वदेवोत्तरायणे। तिलांश्च भक्षयेत्पुण्यान होतव्याश्च तथा तिलाः। तस्यां तिथौ तिर्खत्वा येऽर्चयन्ति द्विजोत्तमान् । त्रिदिवे ते विराजन्ते गोसहस्रप्रदायिनः। तिलतलेन दीपाश्च देयाः शिवगृहे शुभाः। सतिलस्तण्डुलैर्देवं पूजयेद्विधिवद् द्विजम् ॥ हे० (काल, पृ० ४१५-४१६); नि० सि० (पृ० २१८)। गोसहस्र १६ महादानों में एक है। देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २। 'त्रिदिवे ते विराजन्ते' के साथ मिलाइए ऋ० (१०।१०७।२) : 'उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुर्ये अश्वदा सह ते सूर्येण।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org