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________________ संक्रान्तियों के प्रकार, पुण्यकाल सूर्य जब एक राशि छोड़कर दूसरी में प्रवेश करता है तो उस काल का यथावत् ज्ञान हमारी मांसल आँखों से सम्भव नहीं है, अतः संक्रान्ति की ३० घटिकाएँ इधर या उधर के काल का द्योतन करती हैं (का०नि०, पृ० ३३३)। सूर्य का दूसरी राशि में प्रवेश-काल इतना कम होता है कि उसमें संक्रान्ति-कृत्यों का सम्पादन असम्भव है, अतः इसकी सन्निधि का काल उचित ठहराया गया है। देवीपुराण में संक्रान्ति-काल की लघुता का उल्लेख यों है'स्वस्थ एवं सुखी मनुष्य जब एक बार पलक गिराता है तो उसका तीसवाँ काल 'तत्पर' कहलाता है, तत्पर का सौवाँ माग त्रुटि' कहा जाता है तथा त्रुटि के सौवें भाग में सूर्य का दूसरी राशि में प्रवेश होता है। सामान्य नियम यह है कि वास्तविक काल के जितने ही समीप कृत्य हो वह उतना ही पुनीत माना जाता है। इसी से संक्रान्तियों मे पुण्यतम काल सात प्रकार के माने गये हैं---३, ४, ५, ७. ८ ९ या १२ घटिकाएँ। इन्हीं अवधियों में वास्तविक फल-प्राप्ति होती है। यदि कोई इन अवधियों के भीतर प्रतिपादित कृत्य न कर सके तो उसके लिए अधिकतम काल-सीमाएँ ३० घटिकाओं की होती हैं; किन्तु ये पूण्यकाल-अवधियाँ षडशीति (इसमें अधिकतम पुण्यकाल ६० घटिकाओं का है) एवं विष्णुपदी (जहाँ १६ घटिकाओं की इधर-उधर छूट है) को छोड़कर अन्य सभी संक्रान्तियों के लिए है। ये बारहसंक्रान्तियाँ सात प्रकार की (सात नामों वाली) हैं जो किसी सप्ताह के दिन या किसी विशिष्ट नक्षत्र के सम्मिलन के आधार पर उल्लिखित हैं; वे ये हैं--मन्दा. मन्दाकिनी, ध्वांक्षी.घोरा, महोदरी, राक्षसी एवं मिश्रिता। घोरा रविवार (मेष या कर्क या मकर संक्रान्ति) को, ध्वांक्षी सोमवार को, महोदरी मंगल को, मन्दाकिनी बुध को मन्दा बृहस्पति को, मिश्रिता शुक्र को एवं राक्षसी शनि को होती है। इसके अतिरिक्त कोई संक्रान्ति (यथा मेष या कर्क आदि) क्रम से मन्दा, मन्दाकिनी, ध्वांक्षी, घोरा, महोदरी, राक्षसी, मिश्रिता कही जाती है यदि वह क्रम से ध्रुव, मृदु, क्षिप्र, उग्र, चर, क्रूर या मिश्रित नक्षत्र से युक्त हो। २७ या २८ नक्षत्र निम्नोक्त रूप से सात दलों में विभाजित हैं--ध्रुव (या स्थिर)--उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी ; मृदु--अनुराधा, चित्रा, रेवती, मृगशीर्ष ; क्षिप्र (या लघु)---हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित् ; उग्र---पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा, भरणी, मघा; चर--पुनर्वसु,श्रवण, धनिष्ठा, स्वाती, शतभिषक् ; क्रूर (या तीक्ष्ण)--मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा, आश्लेषा; मिश्रित (या मृदुतीक्ष्ण या साधारण)--कृत्तिका, विशाखा (देखिए बृहत्संहिता, ९८।६-११; कृ० क०, नैयत०, पृ० ३६१; हे०, काल,पृ० ४०९; का नि०, पृ० ३४१-३४२; स० म०, पृ० १३७। बृहत्संहिता ९८१९ एवं कृत्यकल्प०, नयत ने लघु दल में अभिजित् का उल्लेख नहीं किया है) । ऐसा उल्लिखित है कि ब्राह्मणों के लिए मन्दा, क्षत्रियों के लिए मन्दाकिनी, वैश्यों के लिए ध्वांक्षी, शूद्रों के लिए घोरा, चोरों के लिए महोदरी, मद्य-विक्रेताओं के लिए राक्षसी तथा चाण्डालों, पुक्कसों तथा जिनकी वृत्तियाँ (पेशे) भयंकर हों एवं अन्य शिल्पियों के लिए मिश्रित संक्रान्ति श्रेयस्कर होती है (हे०, काल, पृ० ४०९-४१० एवं व० क्रि० कौ०, पृ० २१० जहाँ देवीपुराण की उक्तियाँ उद्धृत हैं )। संक्रान्ति के पुण्य काल के विषय में सामान्य नियम के प्रश्न पर कई मत हैं। शातातप (हे०, काल, पृ० ४१७, का० वि०, पृ० ३८२; कृत्यकल्प०, नैयत०, पृ० ३६१-३६२ एवं ३६५), जाबाल एवं मरीचि ने संक्रान्ति के धार्मिक कृत्यों के लिए संक्रान्ति के पूर्व एवं उपरान्त १६ घटिकाओं का पुण्यकाल प्रतिपादित किया है; किन्तु देवीपुराण एवं वसिष्ठ (कृत्यकल्प०, नैयत०, पृ० ३६०; हे०, काल, पृ० ४१८; स० म०, पृ० १३७) ने १५ घटिकाओं के पुण्यकाल की व्यवस्था दी है। यह विरोध यह कहकर दूर किया गया है कि लघु अवधि केवल अधिक पुण्य फल देने के लिए है और १६ घटिकाओं की अवधि विष्णुपदी संक्रान्तियों के लिए प्रतिपादित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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