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संक्रान्ति के कर्तव्य
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राजमार्तण्ड में संक्रान्ति पर किये गये दानों के पुण्य लाभ पर दो श्लोक हैं— 'अयन-संक्रान्ति पर (किये गये दानों) का फल ( सामान्य दिन के दान के ) फल का कोटिगुना होता है और विष्णुपदी पर वह लक्षगुना होता है; षडशीति पर यह ८६००० गुना घोषित है (व० क्रि० कौ० पृ० २१४; का०वि०, पृ० ३८२) । चन्द्र ग्रहण पर दान सौ गुना एवं सूर्य ग्रहण पर सहस्रगुना, विषुव पर शतसहस्रगुना तथा आकामा ( आ आषाढ़ का कार्तिक, मा माघ वैशाख) की पूर्णिमा पर अनन्त फलों को देने वाला है ।' भविष्य ० ने अयन एवं विषुव संक्रान्तियों पर गंगा स्नान की प्रभूत महत्ता गायी है । देखिए वि० ध० सू० ( ३।३१९।३८-४५) ।
कुछ लोगों के मत से संक्रान्ति पर श्राद्ध करना चाहिए । वि० ध० सू० (७७ १-२ ) में आया है - 'आदित्य अर्थात् सूर्य के संक्रमण पर ( जब सूर्य एक राशि से दूसरी में प्रवेश करता है), दोनों विषुव दिनों पर, अपने जन्म-नक्षत्र पर, (विवाह, पुत्र- जन्म के ) विशिष्ट शुभ अवसरों पर काम्य श्राद्ध करना चाहिए; इन दिनों के श्राद्ध से पितरों को अक्षय सन्तोष प्राप्त होता है।' यहाँ पर भी विरोधी मत हैं। शूलपाणि के मत से संक्रान्ति श्राद्ध में पिण्डदान होना चाहिए, किन्तु निर्णयसिन्धु ( पृ० ६ ) के मत से श्राद्ध पिण्डविहीन एवं पार्वण की भाँति होना चाहिए | संक्रान्ति पर कुछ कृत्य वर्जित भी थे । विष्णुपुराण (३।११।११८ - ११९, कृ० २०, पृ० ५४७ एवं व० क्रि० कौ०, पृ० २१६) में वचन है--' चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा एवं संक्रान्ति पर्व कहे गये हैं; जो व्यक्ति ऐसे अवसर पर सम्भोग करता है, तैल एवं मांस खाता है, वह 'विण्मूत्र-भोजन' नामक नरक ( जहाँ का भोजन मल-मूत्र होता है) में पड़ता है।' ब्रह्मपुराण (व० क्रि० कौ०, पृ० २१६) में आया है— अष्टमी, पक्षों के अन्त की तिथियों में, रवि-संक्रान्ति के दिन तथा पक्षोपान्त ( चतुर्दशी) में सम्भोग, तिल-मांस भोजन नहीं करना चाहिए।
आजकल मकरसंक्रान्ति धार्मिक कृत्य की अपेक्षा सामाजिक अधिक है। उपवास नहीं किया जाता, कदाचित् कोई श्राद्ध करता हो, किन्तु बहुत-से लोग समुद्र या प्रयाग जैसे तीर्थों पर गंगा स्नान करते हैं। तिल का प्रयोग अधिक होता है, विशेषतः दक्षिण में। तिल की महत्ता यों प्रदर्शित है - 'जो व्यक्ति तिल का प्रयोग छः प्रकार से करता है
नहीं डूबता ( अर्थात् वह असफल या अभागा नहीं होता); शरीर को तिल से नहाना, तिल से उवटना, सदा पवित्र रहकर तिलयुक्त जल देना ( पितरों को), अग्नि में तिल डालना, तिलदान करना एवं तिल खाना । "
मकर संक्रान्ति पर अधिकांश में नारियाँ ही दान करती हैं । वे पुजारियों को मिट्टी या ताम्र या पीतल के पात्र, जिनमें सुपारी एवं सिक्के रहते हैं, दान करती हैं और अपनी सहेलियों को बुलाती हैं तथा उन्हें कुंकुम, हल्दी, सुपारी, ईख के टुकड़े आदि से पूर्ण मिट्टी के पात्र देती । दक्षिण में पोंगल नामक उत्सव होता है, जो उत्तरी या पश्चिमी भारत में मनाये जाने वाली मकर संक्रान्ति के समान है। पोंगल तमिल वर्ष का प्रथम दिवस है । यह उत्सव तीन दिनों का होता है । 'पोंगल' का अर्थ है 'क्या यह उबल रहा' या 'पकाया जा रहा है ?'
आज के ज्योतिःशास्त्र के अनुसार जाड़े का अयन काल २१ दिसम्बर को होता है और उसी दिन से सूर्य उत्तरायण होते हैं । किन्तु भारत में वे लोग, जो प्राचीन पद्धतियों के अनुसार रचे पंचांगों का सहारा लेते हैं, उत्तरायण का आरम्भ १४ जनवरी से मानते हैं । वे इस प्रकार उपयुक्त मकर संक्रान्ति से २३ दिन पीछे हैं । मध्यकाल के धर्म शास्त्र-ग्रंथों में यह बात उल्लिखित है, यथा हेमाद्रि ( काल, पृ० ४३६-४३७) ने कहा है कि प्रचलित संक्रान्ति १२ दिन पूर्व ही पुण्यकाल पड़ता है, अतः प्रतिपादित दान आदि कृत्य प्रचलित संक्रान्ति दिन के १२ दिन पूर्व भी किये जा सकते हैं ।
५. तिलोद्वर्ती तिलस्नायी शूचिनित्यं तिलोदकी । होता दाता च भोक्ता च षट्तिली नावसीदति ॥ शातातप ।
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