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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास मकर संक्रान्ति का उद्गम बहुत प्राचीन नहीं है। ईसा के कम-से-कम एक सहस्र वर्ष पूर्व ब्राह्मण एवं औपनिषदिक ग्रन्थों में उत्तरायण के छः मासों का उल्लेख है (शतपथ ब्राह्मण, २।१।३।१, ३ एवं ४ ; छान्दोग्योपनिषद्, ४।१५।५ एवं ५।१०।१-२) । ऋ० (३।३३।७) में 'अयन' शब्द आया है, जिसका अर्थ है 'मार्ग' या 'स्थल'। गृह्यसूत्रों में 'उदगयन' उत्तरायण का ही द्योतक है (आश्व० गृ०, १।४।१-२; कौषीतकी गृह्य, १।५; जै० ६।८।२३; आप० गृ० १।१।२) जहाँ स्पष्ट रूप से उत्तरायण आदि कालों में संस्कारों के करने की विधि वर्णित है। किन्तु प्राचीन श्रीत, गृह एवं धर्म सूत्रों में राशियों का उल्लेख नहीं है, उनमें केवल नक्षत्रों के सम्बन्ध में कालों का उल्लेख है। याज्ञ० स्मृति में भी राशियों का उल्लेख नहीं है, जैसा कि विश्वरूप की टीका से प्रकट है (याज्ञ० ११८०, सुस्थे इन्दौ)। राशियों के विषय में हम काल एवं मुहूर्त के प्रकरण में अध्ययन करेंगे। 'उदगयन' बहुत शताब्दियों पूर्व से शुभ काल माना जाता रहा है, अतः मकरसंक्रान्ति, जिससे सूर्य की उत्तरायण गति आरम्भ होती है, राशियों के चलन के उपरान्त पवित्र दिन मानी जाने लगी। मकर-संक्रान्ति पर तिल को इतनी महत्ता क्यों प्राप्त हुई, कहना कठिन है। सम्भवतः मकर-संक्रान्ति के समय जाड़ा होने के कारण तिल जैसे पदार्थों का प्रयोग सम्भव है। चाहे जो हो, ईसवी सन् के आरम्भकाल से अधिक प्राचीन मकर-संक्रान्ति नहीं है। आजकल के पंचांगों में मकर-संक्रान्ति का देवीकरण भी हो गया है; वह देवी मान ली गयी है। संक्रान्ति किसी वाहन पर चढ़ती है, उसका प्रमुख वाहन हाथी जैसे वाहन-पशु हैं; उसके उपवाहन भी हैं; उसके वस्त्र काले, श्वेत या लाल आदि रंगों के होते हैं; उसके हाथ में धनुष या शूल रहता है, वह लाह या गोरोचन जैसे पदार्थों का तिलक करती है ; वह युवा, प्रौढ या वृद्ध है; वह खड़ी या बैठी हुई वर्णित है ; उसके पुष्पों, भोजन, आभूषणों का उल्लेख है; उसके दो नाम (सात नामों में) विशिष्ट हैं; वह पूर्व आदि दिशाओं से आती है और पश्चिम आदि दिशाओं को चली जाती है, और तीसरी दिशा की ओर झाँकती है; उसके अधर झुके हैं, नाक लम्बी है, उसके ९ हाथ हैं। उसके विषय में अग्र सूचनाएँ ये हैं--संक्रान्ति जो कुछ ग्रहण करती है उसके मूल्य बढ़ जाते हैं या वह नष्ट हो जाता है; वह जिसे देखती है, वह नष्ट हो जाता है, जिस दिशा से वह आती हैं वहाँ के लोग सुखी होते हैं, जिस दिशा को वह चली जाती है वहाँ के लोग दुखी हो जाते हैं। ____महाशिवरात्रि-किसी मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कही जाती है, किन्तु माघ (फाल्गुन, पूर्णिमान्त) की चतुर्दशी सबसे महत्त्वपूर्ण है और महाशिवरात्रि कहलाती है। गरुड़ (१।१२४), स्कन्द (१।११३२), पद्म (६।२४०), अग्नि (१९३) आदि पुराणों में उसका वर्णन है। कहीं-कहीं वर्णनों में अन्तर है किन्तु प्रमुख बातें एक-सी हैं। सभी में इसकी प्रशंसा की गयी है। जब व्यक्ति उस दिन उपवास करके बिल्व-पत्तियों से शिव की पूजा करता है और रात्रि भर 'जागर' (जागरण) करता है, शिव उसे नरक से बचाते हैं और आनन्द एवं मोक्ष प्रदान करते हैं और व्यक्ति स्वयं शिव हो जाता है। दान, यज्ञ, तप, तीर्थयात्राएँ, व्रत इसके कोटि-अंश के बराबर भी नहीं हैं। गरुडपुराण में इसकी गाथा है-आबू पर्वत पर निषादों का गजा सुन्दरसेनक था, जो एक दिन अपने कुत्ते के साथ शिकार खेलने गया। वह कोई पशु मार न सका और भूख-प्यास से व्याकुल वह गहन वन में तालाब के किनारे रात्रि भर जागता रहा। एक बिल्व (बेल) के पेड़ के नीचे शिवलिंग था, अपने शरीर को आराम देने के लिए उसने अनजाने में शिवलिंग पर गिरी बिल्व-पत्तियाँ नीचे उतार लीं। अपने पैरों की धूल को स्वच्छ करने के लिए उसने तालाब से जल लेकर छिड़का और ऐसा करने से जल-बूदें शिवलिंग पर गिरी, उसका एक तीर मी उसके हाथ से शिवलिंग पर गिर पड़ा और उसे उठाने में उसे लिंग के समक्ष झुकना पड़ा। इस प्रकार उसने अनजाने में ही शिवलिंग को नहलाया, छुआ और उसकी पूजा की और रात्रि भर जागता रहा। दूसरे दिन वह अपने घर लौट आया और पत्नी द्वारा दिया गया भोजन किया। आगे चलकर जब वह मरा और यमदूतों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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