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धर्मशास्त्र का इतिहास
७०)। प्रातःकाल (यदि प्रतिपदा द्वितीया से युक्त' हो) नारियों द्वारा नीराजन-उत्सव किया जाता है। यदि प्रतिपदा थोड़ी देर रहने वाली हो तो द्वितीया की संध्या में मंगलमालिका (शुम कृत्यों का एक समूह या शुभ मालिकाओं का एक समूह) का कृत्य होता है।
ऊपर कहा जा चुका है कि आश्विन शुक्ल चतुर्दशी सहित इन तीन दिनों को कौमुदीमहोत्सव की संज्ञा मिली है। भविष्योत्तर एवं पद्म० में 'कौमुदी' की व्युत्पत्ति 'कु' (पृथिवी) एवं 'मुद्' (प्रसन्न होना) से की गयी है, जिसका अर्थ है 'जिसमें लोग इस पृथिवी पर आपस में प्रसन्नता की प्राप्ति करते हैं।' दूसरा अर्थ यह है कि इस उत्सव में 'बलि को कुमुदों' (कुमुदिनियों) का दान किया जाता है।
वैदिक काल में आश्विन या शरद् में बहुत-से कृत्य किये जाते थे, यथा आश्वयुजी एवं आग्रयण या नवसस्येष्टि । पहला कृत्य सात पाकयज्ञों में परिगणित है (गौतमधर्मसूत्र, ८।१९) जो आश्विन की पूर्णिमा को सम्पादित होता था। इन दोनों कृत्यों का वर्णन इस महाग्रन्थ के खण्ड २ में हो चुका है। किन्तु इन कृत्यों में हम दिवाली उत्सव की गन्ध नहीं पाते। दिवाली के उद्गम के विषय में कुछ कहना सम्भव नहीं है। इस विषय में कुछ परिकल्पनाएँ की गयी हैं जो यथातथ्य नहीं लगतीं (देखिए श्री बी० ए० गुप्ते का लेख 'दिवाली फोकलोर', इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ३२, पृ० २३७-२३९)।
कार्तिक शुक्ल द्वितीया को एक सुन्दर उत्सव होता है, जिसका नाम है भ्रातृद्वितीया या यमद्वितीया। भविष्य० (१४।१८-७३) में आया है---कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमुना ने यम को अपने घर पर भोजन के लिए निमन्त्रित किया, इसी से इसे संसार में यमद्वितीया के नाम से घोषित किया गया; समझदार लोगों को इस दिन अपने घर में मध्याह्न का भोजन नहीं करना चाहिए, उन्हें अपनी बहिन के घर में स्नेहवश खाना चाहिए; ऐसा करने से कल्याण या समृद्धि प्राप्त होती है। बहिनों को भेंट दी जानी चाहिए। सभी बहिनों को स्वर्णाभूषण, वस्त्र, आदर-सत्कार एवं भोजन देना चाहिए; किन्तु यदि बहिन न हो तो अपने चाचा या मौसी की पुत्री या मित्र की बहिन को बहिन मानकर ऐसा करना चाहिए। इसके विस्तार के लिए देखिए हेमाद्रि (व्रत, भाग १, पृ० ३८४ ३८५; का० वि०, पृ० ४०५; कृ० र०, पृ० ४१३; व० क्रि० को०, पृ० ४७६-४७८; ति० त०, पृ० २९; नि० सि०, पृ० २०३; कृत्यतत्त्व, पृ० ४५३)।।
भ्रातृद्वितीया का उत्सव एक स्वतन्त्र कृत्य है, किन्तु यह दिवाली के तीन दिनों में सम्भवतः इसीलिए मिला लिया गया कि इसमें बड़ी प्रसन्नता एवं आह्लाद का अवसर मिलता है जो दिवाली की घड़ियों को बढ़ा देता है। भाई दरिद्र हो सकता है, बहिन अपने पति के घर में सम्पत्ति वाली हो सकती है; वर्षों से भेंट नहीं हो सकी है आदि-आदि कारणों से द्रवीभूत होकर हमारे प्राचीन लेखकों ने इस उत्सव की परिकल्पना कर डाली है। भाई-बहिन एक दूसरे से मिलते हैं, बचपन के सुख-दुख की याद करते हैं। इस कृत्य में धार्मिकता का रंग भी जोड़ दिया गया है। ऋ० (१०।१०) में वर्णित यम एवं यमी का आख्यान यहाँ आ गया है।
पद्मपुराण में ऐसा आया है कि जो व्यक्ति अपनी विवाहिता बहिनों को वस्त्रों एवं आभूषणों से सम्मानित करता है, वह वर्ष भर किसी झगड़े में नहीं पड़ता और न उसे शत्रुओं का भय रहता है। भविष्योत्तर एवं पदा० ने कहा है-'जिस दिन यम को यमुना ने इस लोक में स्नेहपूर्वक भोजन कराया, उस दिन जो व्यक्ति अपनी बहिन के हाथ का बनाया हुआ मोजन करता है वह धन और सुन्दर भोजन पाता है।'
वैदिक काल तथा मनु (२०११), याज्ञ० (११५३) जैसी आरम्भिक काल की स्मृतियों के काल में भाई से विहीन कुमारियों के विवाह में कठिनाई होती थी। किन्तु इसी भावना या व्यवहार से भ्रातृ-द्वितीया का उद्गम मान लेना उचित नहीं है।
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