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________________ अध्याय ११ मकरसंक्रान्ति एवं महाशिवरात्रि मकर-संक्रान्ति--यह एक अति महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृत्य एवं उत्सव है। आज से लगभग ८० वर्ष पूर्व, उन दिनों के पंचांगों के अनुसार, यह १२वीं या १३वीं जनवरी को पड़ती थी, किन्तु अब विषुवतों के अग्रगमन (अयनचलन) के कारण १३वीं या १४वीं जनवरी को पड़ा करती है। 'संक्रान्ति' का अर्थ है सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना, अतः वह राशि जिसमें सूर्य प्रवेश करता है, संक्रान्ति की संज्ञा से विख्यात है। जब सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है तो मकरसंक्रान्ति होती है।' राशियाँ बारह हैं, यथा मेष, वृषभ, मिथुन, कर्कट, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन। मलमास पड़ जाने पर भी वर्ष में केवल १२ राशियाँ होती हैं। प्रत्येक संक्रान्ति पवित्र दिन के रूप में ग्राह्य है। मत्स्य ० (अध्याय १८) ने संक्रान्ति-व्रत का वर्णन किया है। एक दिन पूर्व व्यक्ति (नारी या पुरुष) को केवल एक बार मध्याह्न में भोजन करना चाहिए और संक्रान्ति के दिन दांतों को स्वच्छ करके तिलयुक्त जल से स्नान करना चाहिए। व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी संयमी ब्राह्मण गृहस्थ को भीजन सामग्रियों से युक्त तीन पात्र तथा एक गाय यम, रुद्र एवं धर्म के नाम पर दे और चार श्लोकों को पढ़े, जिनमें एक यह है 'यथा भेदं न पश्यामि शिवविष्ण्वर्कपद्मजान् । तथा ममास्तु विश्वात्मा शंकर:शंकरः सदा ॥' (मत्स्य० ९८।१७), अर्थात् 'मैं शिव एवं विष्णु तथा सूर्य एवं ब्रह्मा में अन्तर नहीं करता, वह शंकर, नो विश्वात्मा है, सदा कल्याण करने वाला हो' (दूसरे 'शंकर' शब्द का अर्थ है- शं कल्याणं करोति) । यदि हो सके जो व्यक्ति को चाहिए कि वह ब्राह्मण को आभूषणों, पर्यक, स्वर्णपात्रों (दो) का दान करे। यदि वह दरिद्र हो तो वाह्मण को केवल फल दे। इसके उपरान्त उसे तैल-विहीन भोजन करना चाहिए और यथाशक्ति अन्य लोगों को होजन देना चाहिए। स्त्रियों को भी यह व्रत करना चाहिए। संक्रान्ति, ग्रहण, अमावास्या एवं पूर्णिमा पर गंगानान महापुण्यदायक माना गया है, और ऐसा करने पर व्यक्ति ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। प्रत्येक संक्रान्ति पर सामान्य जल (गर्म नहीं किया हुआ) से स्नान करना नित्यकर्म कहा जाता है, जैसा कि देवीपुराण (का० वि०, पृ० १. रवेः संक्रमणं राशौ संक्रान्तिरिति कथ्यते। स्नानदानतपःश्राद्धहोमादिषु महाफला॥ नागरखण्ड हे०, काल, पृ० ४१०); मेषादिषु द्वादशराशिषु क्रमेण सञ्चरतः सूर्यस्य पूर्वस्माद्राशेरुत्तरराशौ संक्रमणं वेशः संक्रान्तिः। अतस्तद्राशिनामपुरःसरं सा संक्रान्तिर्व्यपदिश्यते। का० नि० (पृ० ३३१)। २. संक्रान्त्यां पक्षयोरन्ते ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः। गंगास्नातो नरः कामाद् ब्रह्मणः सदनं व्रजेत् ॥ भविष्य० व० क्रि० को०, पृ० ५१४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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