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________________ ६८ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रतिमा में, चित्र में, त्रिशूल में, तलवार में या जल में हो सकती है। और देखिए गरुड़ एवं भविष्यपुराण (दु. भ० त०, पृ० ४, ६ एवं ७)। दुर्गा के बाहुओं के विषय में मतैक्य नहीं है। वराह० (९५।४१) में देवी के २० हाथ एवं २० हथियार हैं (९५।४२-४३)। देवीभागवत (५।८।४४) में १८ हाथ कहे गये हैं। हेमाद्रि (व्रत, भाग १, पृ० ९२३-९२४) ने आठ एवं दस हाथों का उल्लेख किया है। और देखिए विद्यापति (पृ० ६-७)। ___'नवरात्र' शब्द के विषय में कई मत हैं। कुछ लोगों के अनुसार नवरात्र का तात्पर्य है '९ दिन एवं रात्रि'। यह केवल समय का द्योतक है जिसमें व्रत किया जाता है, यह कर्म का नाम नहीं है। किन्तु कुछ लोग इसे वत से सम्बन्धित मानते हैं, जो आठ दिनों तक चल सकता है जब कि तिथि-क्षय हो, या १० दिनों तक, यदि पहले दिन से नवें दिन तक तिथि की कोई वृद्धि हो। पहला मत कालतत्त्वविवेक (पृ० १६५) में तथा दूसरा पुरुषार्थचिन्तामणि (पृ० ६१) में प्रकाशित है। हम इसके विवेचन में यहाँ नहीं पड़ेंगे। नवरात्र में दुर्गापूजा के प्रमख विषय, चाहे वे ३ दिनों (सप्तमी से प्रारम्भ होकर) तक चलें, या ९ दिनों (प्रथमा से नवमी) तक चलें, चार हैं, यथा स्नपन (प्रतिमा-स्नान), पूजा, बलि एवं होम। ऊपर हमने स्थानाभाव से स्नपन का विवेचन नहीं किया है। इस विषय में देखिए दुर्गार्चनपद्धति (पृ० ६७४), व्रतराज (पृ० ३४०) एवं अन्य निबन्ध। इन चारों कृत्यों में पूजा सबसे महत्त्वपूर्ण है और उपवास केवल पूजा का अंग है। एक अन्य प्रश्न है--पूजा का समय क्या होना चाहिए? समयमयूख (पृ० १४) ने प्रातः काल, निर्णयसिन्धु (पृ० १६५) ने रात्रि काल, माना है। किन्तु देवीपुराण एवं कालिकापुराण से व्यक्त होता है कि प्रातः, मध्याह्न एवं रात्रि तीनों ठीक हैं। इस प्रश्न के विषय में हम अन्य मतमतान्तरों का उल्लेख नहीं करेंगे। ऊपर कलश या घट के विषय में संकेत किया जा चुका है। पूर्ण कलश पवित्रता एवं समृद्धि का प्रतीक है, ऐसा वैदिक काल से ही प्रकट है (ऋ० ३।३२।१५ ‘आपूर्णो अस्य कलशः')। इसके विषय में दुर्गामक्तितरंगिणी (पृ०३), नि० सि० (पृ.० ७६७). व्रतराज (पृ० ६२-६६), पुरुषार्थचिन्तामणि (पृ० ६६-६७) आदि में विशद उल्लेख है। दुर्गार्चनद्धति (पृ० ६६३) में भी घट-स्थापन कृत्य का वर्णन है। यह दिन में किया जाता है न कि रात्रि में। पवित्र मिट्टी की वेदिका बनती है, उस पर यव (जौ) एवं गेहूँ के अन्न बो दिये जाते हैं और वहाँ सोने, चांदी, ताम्र या मिट्टी का घट रख दिया जाता है, उसमें जल भरा जाता है, जिसमें चन्दन, सर्वोषधि, दूर्वा, पंचपल्लव, सात स्थानों की मिट्टी, फल, पंचरत्न एवं सोना डाल दिया जाता है। उपर्युक्त सभी कृत्यों के साथ वैदिक मन्त्रों का पाठ होता रहता है। घट को वस्त्र से घेर दिया जाता है, उसके मुख पर पूर्णपात्र (चावल से युक्त) रख दिया जाता है और उस पर वरुण-पूजा की जाती है। इसके उपरान्त घट में दुर्गा का आवाहन किया जाता है, सभी देवों की प्रतिष्ठा होती है, उपचार किये जाते हैं, प्रार्थना की जाती है। अन्य बातें विस्तार-मय से छोड़ दी जा रही हैं। हेमाद्रि (व्रत, माग १, पृ० ९०६) ने देवीपुराण से उद्धरण देकर अश्वों के सम्मान का उल्लेख किया है। दुर्गापूजा सबकी होती है। राजा या जिनके पास घोड़े होते हैं उन्हें द्वितीया तिथि से नवमी तक घोड़ों का सम्मान करना चाहिए। देखिए दुर्गाभक्तितरंगिणी (पृ० ५६-६३ एवं ६७-६९) । राजाओं को लोहाभिसारिका कृत्य करना पड़ता था। इस कृत्य' को नीराजन भी कहा गया है। देखिए कृत्यकल्पतरु (पृ० ४०८-४१०) जहाँ नयतकालिक विभाग में देवी-पूजा का उल्लेख है। इसमें दुर्गाष्टमी व्रत की चर्चा है, जिसके विषय में हेमाद्रि ने भी कुछ अन्तरों के साथ विवेचन उपस्थित किया है (व्रत, माग १, पृ० ८५६-८६२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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