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________________ बलिदान- विचार, अष्टमी-नवमी-दशमी के कृत्य ६७ यहाँ तक विषयान्तर रहा। वास्तव में बलि नवमी तिथि को की जाती है। अभी अष्टमी तिथि के कृत्य का वर्णन करना शेष है । पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र से युक्त या विहीन अष्टमी तिथि को, जिसे महाष्टमी कहा जाता है, व्रती स्नान एवं आचमन करके पूर्व या उत्तर की ओर मुख होकर दर्भों के आसन पर बैठता है और अपने को पवित्र करता है। इसके उपरान्त वह प्राणायाम करता है और अपने विभिन्न अंगों (सिर से पैर तक ) का न्यास करता है । इस विषय में देखिए दुर्गार्चनपद्धति ( पृ० ६७८ ६८१), नि० सि० ( पृ० १७९ - १८१ ) । अन्य विस्तार यहाँ छोड़ दिये जा रहे हैं। महाष्टमी पूजा के दिन व्रती उपवास करता है । किन्तु पुत्रवान् व्रती ऐसा नहीं करता । अष्टमी तिथि को पूजा, नवमी तिथि को बलि, दशमी तिथि को देवी का विसर्जन आदि कृत्य किये जाते हैं। अष्टमी तिथि को कुमारियों एवं ब्राह्मणों को खिलाया जाता है। देवीपुराण में आया है कि 'दुर्गा होम, दान एवं जप से उतनी प्रसन्नता नहीं व्यक्त करतीं जितनी कुमारियों को सम्मान देने से ।' कुमारियों को दक्षिणा मी दी जाती है । और देखिए स्कन्द० जहाँ कुमारियों का विभाजन किया गया है—कुमारिका ( दो वर्ष की ), त्रिमूर्ति ( तीन वर्ष की ), कल्याणी, रोहिणी, काली, चण्डिका, शाम्भवी, दुर्गा, सुभद्रा । इनका वर्णन हम यहाँ नहीं करेंगे। अब हम संक्षेप में नवमी तिथि ( महानवमी) का वर्णन करेंगे। नवमी को चाहे उत्तराषाढ़ा नक्षत्र हो या न हो, महाष्टमी के समान ही पूजा की जाती है। पुरानी क्रियाओं का ही पुनरावर्तन होता रहता है, अन्तर केवल यह होता है कि इस दिन अधिक पशुओं की बलि की जाती है। इस विषय में विस्तार के लिए देखिए राजनीतिप्रकाश ( पृ० ४३९-४४४) जहाँ देवीपुराण से लम्बे उद्धरण लिये गये हैं । दशमी तिथि को स्नान, आचमन के उपरान्त १६ उपचारों के साथ पूजा की जाती है । बहुत-से कृत्यों के उपरान्त यथा मूर्ति से विभिन्न वस्तुओं को हटाकर, किसी नदी या तालाब के पास जाकर संगीत, गान एवं नृत्य के साथ मन्त्रोच्चारण करके प्रतिमा को प्रवाहित कर दिया जाता है। ऐसी प्रार्थना की जाती है -- 'हे दुर्गा, विश्व की माता, आप अपने स्थान को चली जायँ और एक वर्ष के उपरान्त पुनः आयें।' इसके उपरान्त शबरोत्सव होता है । इसका अर्थ यह है कि दशमी तिथि को देवी प्रतिमा के जल-प्रवाह के उपरान्त शबरों (वनवासी, मील आदि ) से सम्बन्धित कृत्य ( दुर्गापूजा के उपरान्त आनन्दाभिव्यक्ति के रूप में) किये जाने चाहिए। कालविवेक में आया है कि लोग विसर्जन के उपरान्त शबरों की भाँति पत्तियों से देह को ढँककर, कीचड़ आदि से शरीर को पोतकर नृत्य, गान एवं संगीत में प्रवृत्त हो आनन्दातिरेक से प्रभावित हो जायें। और देखिए कालिकापुराण (६२/२० एवं ४३; ६२।३१) जहाँ क्रीडाकौतुक, मंगल एवं शबरोत्सव आदि का उल्लेख है । शबरोत्सव से यही अर्थ निकाला जा सकता है कि देवी की दृष्टि में सभी लोग बराबर हैं, अतः दशमी तिथि में सबको एक साथ मिलकर आनन्दोत्सव मनाना चाहिए। विसर्जन के उपरान्त लोग मित्रों के यहाँ जाते हैं और मिठाइयाँ खाते हैं । शबरोत्सव आजकल प्रचलित नहीं है । प्रतिमा के लिए दो-एक बातें लिख देना आवश्यक है। ऐसी ही प्रतिमा का पूजन होता है जिसमें देवी सिंह एवं महिषासुर के साथ निर्मित हुई हों। मार्कण्डेय० (८०।३८ एवं ४० ) में आया है कि देवी महिषासुर के गले पर चढ़ गयीं, उसे अपने त्रिशूल से मारा तथा अपनी भारी तलवार से उसके सिर को काट डाला और उसे भूमि पर गिरा दिया। आजकल देवी की प्रतिमा के साथ लक्ष्मी एवं गणेश की प्रतिमाएँ दाहिनी ओर तथा सरस्वती एवं कार्तिकेय की प्रतिमाएँ बायीं ओर बनी रहती प्रतिमा सोने, चाँदी, मिट्टी, धातु, पाषाण आदि की बन सकती है, या केवल देवी का चित्र मात्र हो सकता है। देवी की पूजा लिंग में, वेदिका पर या पुस्तक में, पादुकाओं पर, हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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