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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास से कोई शाखा काट लेता है। उस शाखा में फल हो सकते हैं या नहीं भी हो सकते हैं। काटते समय मन्त्र-पाठ होता है। इसके उपरान्त उस शाखा को व्रती पूजा-मण्डप में लाता है और एक पीढ़े पर रख देता है। इसके उपरान्त का विवरण स्थान-संकोच से छोड़ दिया जा रहा है। जानकारी के लिए देखिए कालिकापुराण (६११११-२०); मत्स्य० (२६०।५६-६६), दु० भ० त० (पृ० ४-५ एवं ७५-७६), व० क्रि० कौ० (पृ० ४१३-४१४); दुर्गार्चन० (१० ६६६-६७); का० त० वि० (पृ० २८५)। दुर्गापूजा में पशु-बलि के विषय में बहुत कुछ लिखा गया है। कुछ बातें यहाँ दी जा रही हैं। कालिकापुराण (७१।३-५ एवं ९५-९६) में दुर्गा एवं भैरव के सम्मान में बलि दिये जाने वाले जीवों का उल्लेख है---पक्षी, कच्छप (कछुआ), ग्राह, मछली, नौ प्रकार के मृग, भैसा, गंवय, बैल, बकरी, नेवला, शूकर, खड्ग, कृष्ण हरिण, शरम, सिंह, व्याघ्र, मानव, व्रती का रक्त। किन्तु इनमें मादा जीवों का निषेध है और लिखा हुआ है कि जो मादा की बलि देता है, वह नरक में जाता है। बलि के पशु के कान कटे हुए नहीं होने चाहिए। सामान्यतः बकरे एवं भैंसे काटे जाते हैं। ऐसा आया है कि विन्ध्यवासिनी देवी पुष्प, धूप, विलेपन तथा अन्य पशुओं की बलि से उतनी प्रसन्न नहीं होती जितनी भेड़ों एवं भैंसों की बलि से (हे०, व्रत, भाग १, पृ० ९०९) । वर्पक्रियाकौमुदी (पृ० ३९७) में आया है--देवी को घोड़ा या हाथी की बलि कमी नहीं देना चाहिए; यदि कोई ब्राह्मण सिंह, व्याघ्र या मनुष्य की बलि करता है तो वह नरक में पड़ता है और इस लोक में भी अल्प जीवन पाता है तथा सुख एवं समृद्धि से वंचित हो जाता है; यदि कोई ब्राह्मण अपना रक्त देता है तो वह आत्महत्या का अपराधी होता है; यदि कोई ब्राह्मण सुरा चढ़ाता है तो वह ब्राह्मण-स्थिति खो देता है। यदि सुरा-दान करना ही हो तो काँसे के पात्र मे नारियल-जल देना चाहिए या ताम्रपात्र में मधु देना चाहिए।' किन्तु कुछ मत उपर्युक्त कथन के विरोध में पड़ते हैं। कालिकापुराण (दु० भ० त०.५०५३) में आया है----अज, महिष एवं नर क्रम से बलि, महाबलि एवं अतिबलि घोषित हैं। यद्यपि पशु की बलि होती है किन्तु देवी को सामान्यतः उसका रक्त एवं सिर चढ़ाया जाता है। कालिका० (७१।२०२२) में आया है कि मन्त्रपूत (मन्त्र के साथ चढ़ाया हुआ) शोणित (रक्त) एवं शीर्ष (सिर) अमृत कहे गये हैं। देवी-पूजा में कुशल व्रती मांस बहुत ही कम चढ़ाता है, केवल रक्त एवं सिर का प्रयोग होता है जो अमृत हो जात हैं। कालिका० में पुनः आया है कि शिवा (दुर्गा) बलि का सिर एवं मांस दोनों ग्रहण करती हैं, किन्तु व्रती को केवल रक्त एवं सिर ही पूजा में चढ़ाना चाहिए, समझदार लोगों को चाहिए कि वे मांस का प्रयोग होम एवं भोजन में करें। दुर्गार्चनपदति में (पृ० ६६९-६७१ ) बलि किये जाने एवं रक्त-शीर्ष चढ़ाने के विषय में विस्तार के साथ लिखा है, जिसे हम स्थान-संकोच से यहाँ नहीं दे रहे हैं। अन्य बातों के लिए देखिए कालिकापुराण। कुछ लोगों के हृदय पशु-बलि से द्रवित हो उठते हैं अतः कालिका० ने अन्य व्यवस्थाएँ दी हैं, यथा कूष्माण्ड-बलि, ईख, मद्य, आसव (गुड, पुष्पों एवं औषधियों से प्राप्त)। इस विषय में और देखिए अहल्याकामधेनु। (इस समय नर-बलि अवैध घोषित है।) ऐसा विश्वास बहुत प्राचीन काल से रहा है कि बलि के जीव स्वर्ग में जाते हैं। देखिए ऋ० (१।१६२।२१, वाज० सं० २३।१६) एवं मनु (५।४२)। हेमाद्रि (व्रत, भाग १, पृ० ९०९) में आया है कि देवी को प्रसन्न करने के लिए जो पशु बाल होते हैं वे स्वर्ग को चले जाते हैं और जो उन्हें मारते हैं वे पापी नहीं होते। ४. 'ओम् छिन्धि छिन्धि फट फट् हुं फट स्वाहा' इत्यनेन छेदयेत् । दुर्गार्चनपद्धति, पृ० ६६५; व० क्रि० कौ०, पृ०४०१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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