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________________ दुर्गापूजा को ऐतिहासिकता दुर्गापूजा की प्राचीनता के विषय में हमने इस महाग्रन्थ के खण्ड दो में पढ़ लिया है। यहाँ कुछ विशेष बातों का उल्लेख हो रहा है। तै० सं० (१२८।६।१) में अम्बिका को शिव की बहिन कहा गया है, किंतु तै० आ० (१०।१८) में शिव को अम्बिका या उमा का पति कहा गया है। वन० (अध्याय ६) में दुर्गा को यशोदा एवं नन्द की लड़की कहा गया है और उसे वासुदेव की बहिन कहा गया है और काली, महाकाली एवं दुर्गा की संज्ञा से विभूषित किया गया है। जब कृष्ण के कहने पर अर्जुन (भीष्म०, २३) ने दुर्गास्तोत्र का पाठ किया तो कई नामों का उल्लेख हुआ, यथा कुमारी, काली, कपाली, कपिला, भद्रकाली, महाकाली, चण्डी, कात्यायनी, कौशिकी, उमा। किन्तु महाभारत की इन उक्तियों की तिथियों के समय के विषय में कुछ निश्चित निर्णय देना सम्भव नहीं है। साहित्यिक ग्रन्थों एवं सिक्कों से दुर्गा-पूजा की प्राचीनता पर कुछ निश्चित तालिका उपस्थित होती है। रघुवंश (सर्ग २) में पार्वती द्वारा लगाये गये देवदारुवृक्ष की रक्षा के निमित्त नियुक्त एक सिंह का उल्लेख है। पार्वती को गौरी (रघुवंश, २।२६ एवं कुमारसम्भव, ७४९५) एवं भवानी (कुमार० ७।८४), चण्डी (मेघदूत, १३३) कहा गया है। कुमारसम्भव में शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप भी उल्लिखित है (७।२८)। उसी ग्रन्थ में माताओं (७।३०, ३८), काली (मुण्डों का आभूषण धारण किये, ७।३९) के नाम आये हैं। भालतीमाधव (अंक ५) में चामुण्डा को पद्मावती नगरी में मानव-बलि दिये जाने का उल्लेख है। मृच्छकटिक (६।२७) में शुम्भ एवं निशुम्भ का दुर्गा द्वारा मारा जाना उल्लिखित है। यदि कालिदास का समय' ३५०-४५० ई० है तो दुर्गापूजा ३०० ई० के पहले से अवश्य प्रचलित है। इस पर सिक्कों से भी प्रकाश पड़ता है। गुप्तकुल के सम्राट् चन्द्रगुप्त प्रथम (३०५-३२५ ई०) के सिक्कों पर सिंहवाहिनी देवी का चित्र है। तत्पूर्वकालीन कुषाण राजा कनिष्क' के सिक्कों पर भी चन्द्र एवं (बायीं ओर झके हए) सिंह के साथ देवी का चित्र है, देवी के हाथ में पाश एवं राजदण्ड है। पाश एवं वाहन सिंह से प्रकट होता है कि वह देवी दुर्गा है न कि लक्ष्मी। इससे हम प्रथम या दूसरी शताब्दी तक पहुँच जाते हैं। दो नवरात्रों (चैत्र एवं आश्विन) की व्यवस्था क्यों की गयी है ? यहाँ केवल अनुमान लगाने से कुछ प्रकाश मिल सकता है। यह सम्भव है कि ये दोनों पूजाएँ वसन्त एवं शरद् कालीन नवान्नों से सम्बन्धित रही हों। दुर्गापूजा पर शाक्त सिद्धान्तों एवं प्रयोगों का प्रभाव पड़ा है। घोष ने अपने ग्रन्थ 'दुर्गापूजा' में कल्पना की है कि वैदिक काल की उषा ही पौराणिक एवं तान्त्रिक दुर्गा है। किन्तु यह अमान्य है। कहाँ वेदकाल की सुन्दर एवं शोभनीय उषा और कहाँ कालिकापुराण की भयंकर दुर्गा ? दोनों के बीच में जोड़ने वाली कोई कड़ियाँ नहीं हैं। दुर्गा का सम्बन्ध ज्योतिष की (पांववी-छठी राशि) सिंहवाहिनी दुर्गा से हो सकता है, किन्तु इससे भी कोई विशिष्ट प्रकाश नहीं पड़ता। . इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली (जिल्द २१ पृ० २२७-२३१) में श्री एन. जी बनर्जी ने उदयसिंह की दुर्गोत्सवपद्धति की ओर निर्देश किया है, जिसमें जय के लिए महानवमी एवं संकल्प से आरम्भ हुआ है और अन्त किया गया है घोड़ों के प्रयाण करने के विवरण से, जो दशमी को होता है। इससे उन्होंने कहा है कि यह दुर्गापूजा आरम्भ में सैनिक कृत्य था जो आगे चलकर धार्मिक हो गया। उन्होंने अपनी स्थापना के लिए रघुवंश (४१२४-२५) का हवाला दिया है जिसमें शरद् के आगमन पर रघु द्वारा आक्रमण करने के लिए शान्ति कृत्य (अश्वनीराजना) किया गया है। यह बात बृहत्संहिता (अध्याय, ४४) से भी सिद्ध की गयी है जहाँ घोड़ों, हाथियों एवं सैनिकों का नीराजन करना आश्विन या कार्तिक के शुक्ल पक्ष की अष्टमी, द्वादशी या पूर्णिमा तिथियों में कहा गया है। किन्तु यह धारणा भ्रामक है, क्योंकि ऐसा बहुधा पाया गया है कि बहुत-से उत्सव समान तिथियों में होते हैं, यथा उत्तर भारत में रामलीला का उत्सव नवरात्र से संयुक्त हो दस दिनों तक लता है। रामलीला एवं नवरात्र दोनों स्वतन्त्र कृत्य हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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