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________________ हरितालिका, गणेशचतुर्थी व्रत वर्तमान समय में नारियाँ पार्वती, शिवलिंग एवं पार्वती की किसी सखी की मिट्टी की प्रतिमाएँ खरीद कर पूजा करती हैं। इस व्रत का 'हरितालिका' नाम क्यों पड़ा, कहना कठिन है। व्रतराज (पृ० १०८) का कथन है कि यह व्रतराज (व्रतों में राजा) है और इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि पार्वती अपने घर से अपनी सखियों द्वारा ले जायी गयी थीं। व्रतराज में आया है कि शिव ने अपनी वह व्रत-कथा पार्वती से कही थी, जिसके द्वारा उन्हें पार्वती प्राप्त हुई थीं और वे उनकी अर्धांगिनी हो सकी थीं। वराह० (अध्याय २२) में गौरी एवं शिव के विवाह का लम्बा उल्लेख है। भारत के कतिपय भागों में (किन्तु बंगाल एवं गुजरात में नहीं) माद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थो का उत्सव किया जाता है। यह वरदचतुर्थी के नाम से भी विख्यात है (स० म०,पृ० ३९)। इसका सम्पादन मध्याह्न में होता है (का०नि०, पृ० १८१ एवं नि० सि०,पृ० १३३)। यदि चतुर्थी तिथि तृतीया और पंचमी से संयुक्त हो तथा मध्याह्न में चतुर्थी हो तो तृतीया से संयुक्त' चतुर्थी मान्य होती है। यदि मध्याह्न में चतुर्थी न हो, किन्तु दूसरे दिन पंचमी से युक्त मध्याह्न में हो तो परविद्धा (आने वाली पंचमी से संयुक्त) को ही उत्सव होता है। संक्षेप में विधि यों है। आजकल मिट्टी की रँगी हुई गणेश-प्रतिमा ली जाती है, उसकी प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है, १६ उपचारों के साथ विनायक-पूजा होती है। चन्दन से युक्त दो दूर्वा-दल प्रत्येक दस नामों से समर्पित किये जाते हैं, इस प्रकार कुल २० दूर्वादलों का प्रयोग होता है, इसके उपरान्त दसों नामों को एक साथ लेकर २१वाँ दूर्वादल समर्पित होता है।' एक दूर्वा नैवेद्य रूप में, दस ब्राह्मणों को तथा शेष दस स्वयं व्रती या उसका कुटुम्ब खाता है। अन्य विवरणों के लिए देखिए पु० चि० (पृ०९४) एवं व्रतराज (पृ० १४४-१५१) । यदि भाद्रपद के कृष्णपक्ष की चतुर्थी रविवार या मंगलवार को पड़ती है तो उसे 'महती' चतुर्थी कहते हैं (ध० सि०, पृ० ७२) । गणेश-पूजन में महत्त्वपूर्ण वैदिक मन्त्र है ऋ० २।२३।१ (तै० सं० २।३।१४।३ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे), जो वास्तव में ब्रह्मणस्पति को सम्बोधित है, किन्तु मध्य एवं वर्तमान काल की धारणाओं में गणेश ने उस वैदिक देवता की विशेषताएँ ग्रहण कर ली हैं। गणेशचतुर्थी में २१वीं संख्या महत्त्व रखती है। ध्यान के लिए गणेश का जो स्वरूप निर्धारित है वह यों है--'उन सिद्धि-विनायक का ध्यान करना चाहिए जो एक दाँत वाले हैं, जिनके कर्ण सूप के समान हैं, जो नाग का जनेऊ धारण करते हैं और जो हाथों में पाश एवं अंकुश धारण करते हैं।" माध्यमिक एवं वर्तमान काल में एक ऐसी धारणा रही है कि यदि कोई इस गणेशचतुर्थी को चन्द्र देख लेता है तो उस पर चोरी आदि का झूठा अभियोग लग जाता है। यदि कोई त्रुटिवश चन्द्र का दर्शन कर लेता है तो २. आलिभिहरिता यस्मात्तस्मात्सा हरितालिका। व्रतराज (पृ० १०८)। ऐसी कल्पना करना संभव है कि पार्वती की प्रतिमा हरिताल से पीले रंग में रंगी जाती थी और इसी से 'हरितालिका' नाम पड़ा। ३. वस नाम ये हैं--गणाधिप, उमापुत्र, अघनाशन, विनायक, ईशपुत्र, सर्वसिद्धि, एकदन्त, इभवक्त्र, मूषकवाहन एवं कुमारगुरु। ' ४. तत्र गणेशरूपं स्कान्दे-एकदन्तं शूर्पकर्ण नागयज्ञोपवीतिनम् । पाशांकुशधरं देवं ध्यायेसि डि विनायम् । इति । नि० सि० (पृ० १३३) एवं स्मृतिका० (पृ० २१०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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